पूरी तरह वैराग्य के मार्ग पर चलते हुए महाराज ऋतुध्वज और मदालसा को बहुत समय बीत गया। दोनों वैराग्य के मामले में बहुत आगे बढ चुके थे। दोनों जीवन मुक्त की अवस्था में पहूंच चुके थे। संसार में रहकर भी संसार से बहुत दूर थे। एक दिन दोनों योगाग्नि के मार्ग का अबलंबन लेकर संसार चक्र को पार करने लगे। पर योगाग्नि ही प्रज्वलित नहीं हुई। वैसे महाराज ऋतुध्वज को अपनी क्षमता में संदेह था। पर महारानी मदालसा के आह्वान पर भी योगाग्नि का उनसे दूरी बनाये रखना, यह तो घोर आश्चर्य था। मात्र लोरियों द्वारा अपने तीन पुत्रों को वैराग्य पथ का राही बनाने बाली परम ज्ञानी महारानी मदालसा के आह्वान पर योगाग्नि प्रज्वलित नहीं हुई तो इसका एकमात्र अर्थ यही था कि महारानी मदालसा ने उस समय योगाग्नि का आह्वान किया ही नहीं था। अन्यथा परम सती के सामने दोनों हाथ जोड़ खड़ी योगाग्नि किस तरह उसके आदेश की अवहेलना कर सकती थी।
उसी समय तीन अवधूत वहां आ गये। उनके मस्तक पर अपूर्व तेज था। साधारण मनुष्य तो उनका चेहरा देख पाने में भी अक्षम थे। तीनों महारानी मदालसा को प्रणाम कर खड़े हो गये।
” यह क्या। वैराग्य पथ के राहियों का मन भी संसार में सुख तलाश रहा है। संसार से दूर गये सन्यासी फिर कब संसार की तरफ देखते हैं। संसार से अनासक्त किस तरह सांसारिक बंधनों में आसक्त होते हैं। बंधन मुक्तों के लिये सांसारिक संबंधों का क्या मूल्य।”
महारानी के पूछने पर भी तीनों हाथ जोड़ खड़े रहे। फिर उन तीनों में आयु में बड़ा उन्हें प्रणाम कर कहने लगा।
” यह सत्य है कि जिन्हें संसार से वैराग्य हो जाता है, वे फिर कभी संसार की तरफ नहीं देखते। सांसारिक जीवन के रिश्तों की तो बात ही क्या, उस काल का नाम, गौत्र और परिचय भी वे भुला देते हैं। फिर भी क्या किसी सन्यासी के सन्यास की इतनी सामर्थ्य कि वह अपने गुरु तथा जन्मदात्री की इच्छा को विस्मृत कर सके। गुरु और जन्मदात्री द्वारा याद करने पर उनसे दूर रह सके। फिर आप न केवल हमारी जन्मदात्री हैं अपितु हमारी गुरु भी हैं। माता। महाप्रयाण के समय आपका हम तीनों का स्मरण। निश्चित ही अभी हमारे सन्यास पथ के लिये कुछ कर्तव्य शेष है। आदेश दीजिये। आपके आदेश की पूर्ति से पूर्व मृत्यु भी हमारे निकट नहीं आ सकती है। “
विक्रांत, सुबाहु और शत्रुमर्दन अपनी माता मदालसा के सामने हाथ जोड़ खड़े थे। माता के अपूर्ण कार्य को पूर्ण करने का वचन ले रहे थे। तथा उनके द्वारा माता मदालसा का आदेश स्वीकार करते ही परम सती मदालसा के शरीर पर योगाग्नि प्रज्वलित होने लगी। पति के बिना अकेले परम पथ पर अग्रसर न होने के उनके निर्णय के बाद महाराज ऋतुध्वज का शरीर भी योगाग्नि से घिर गया। एक ऐसी अद्भुत अग्नि कि दोनों का शरीर भस्म हो गया पर दोनों को कोई भी कष्ट न हुआ। अंत तक दोनों अपने आराध्य का स्मरण करते रहे।
अलर्क परम वीर और प्रजाबत्सल राजा हुए। उनका राज्य पूर्व में म्यांमार, पश्चिम में गांधार, उत्तर में हिमगिरि तथा दक्षिण में सागर तक फैल गया। उनके राज्य के भिन्न-भिन्न हिस्सों की देखभाल उनके दस वीर पुत्रों के हाथों में थी। दसों पुत्र भी परम वीर और प्रजाबत्सल थे। संगठन की शक्ति थी। कोई मतभेद न था। प्रजा प्रसन्न थी। सभी क्षेत्रों में राज्य उन्नति के शिखर पर था।
एक बार फिर तीनों सन्यासी भाई एकत्रित हुए।
” भाई। माता जी के आदेश पालन का समय आ चुका है। अब अलर्क को भी वैराग्य का पाठ पढाना है। उसे संसार चक्र में अकेला नहीं छोड़ सकते।”
“सही कहा अनुजों । अलर्क हमारा सबसे छोटा भाई है। माता जी को भी अंतिम क्षणों तक उसकी ही चिंता थी। अब समय आ चुका है कि माता जी के आदेश का अक्षरशः पालन किया जाये। “
तीनों भाइयों ने अलर्क के पास संदेश भेज दिया।
” अलर्क। इस राज्य, सुख, ऐश्वर्य और वैभव पर तुम्हारा एकाकी अधिकार किस तरह। हम तुम्हारे अग्रज हैं। हमें भी सुख में जीवन जीने का पूर्ण अधिकार है। उचित है कि तुम हमें हमारा अधिकार हमारा हिस्सा दे दो। हम तुमसे कुछ नहीं कहेंगें। अन्यथा अपने अधिकार हम युद्ध द्वारा भी प्राप्त कर लेंगें। फिर संभावना है कि तुम पूर्णतः वैभवहीन हो जाओ। “
अनेकों वर्षों से भाइयों का कहीं पता भी नहीं था। लगभग पूरे भारत का सम्राट अलर्क अपने तीन बड़े भाइयों के विषय में पूरी तरह अनभिज्ञ था। आज जब तीनों भाई आये तो भी इस रूप में। सन्यास का मार्ग उन्होंने खुद चुना था। माता जी और पिता जी ने उसे यह राज्य उसकी योग्यता के आधार पर दिया था। फिर राजा बनना कब वैभव पूर्ण जीवन जीना है। राजा तो कर्तव्य पथ का साधक ही तो है। नहीं। यह संभव नहीं। प्रजा की उम्मीदों को भाई भाइयों के मध्य बांटा तो नहीं जा सकता है।
तीनों बड़े भाइयों के प्रस्ताव को स्वीकार करने का प्रश्न ही नहीं था। उम्मीद थी कि वास्तव में भाइयों की तरफ से भी आगे कुछ नहीं किया जायेगा। और यदि वे कुछ करते भी हैं तो उसका क्या मूल्य। तीन सन्यासियों का एक चक्रवर्ती नरेश की चतुरंगिनी सेना से भला क्या मुकाबला। सच्ची बात तो यही है कि तीन सन्यासियों को व्यवहारिक पाठ सिखाने के लिये एक अदना सा पहरेदार ही पर्याप्त है। किसी कारण से हुआ भाइयों का मतिभ्रम क्षणिक ही है और एक लठैत की लाठी को देख ही ठिकाने आ ही जायेगा।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’