मित्रता के बंधन में बंधे राजकुमार ऋतुध्वज और कुवलय अश्व बहुत शीघ्र ही एक दूसरे के पर्याय बन गये। जैसे दोनों एक दूसरे से बचपन से ही परिचित हों। मजाक मजाक में ही राजकुमार का नया नामकरण हो गया । अब राजकुमार को तपस्वी ऋतुध्वज के नाम से न पुकार राजकुमार कुवलयाश्व कहने लगे। कुवलयाश्व नाम अश्व और राजकुमार दोनों पर सटीक बैठता। ‘कुवलय अश्व’ और ‘ कुवलय है अश्व जिसका’ इस तरह दो भिन्न समासों तत्पुरुष और बहुब्रीहि समास के अनुसार विवरण करने पर एक ही नाम दोनों पर सटीक बैठते।
   एकांत के क्षणों में राजकुमार अश्व को अपनी प्रेम कहानी सुनाता। अश्व इस भांति सुनता कि मानों वह सब समझ रहा हो। बीच बीच में अपना सर भी हिलाता जाता। 
  ” कुवलय। मेरे मित्र। एक बार उस कन्या से मिलना तो है। वह धरती के किसी न किसी कौने पर मुझे मिल जायेगी। आखिर उसने मुझसे असत्य क्यों कहा। उसका क्या उद्देश्य रहा होगा। वैसे मेरा मन उसे प्रतिपल निर्दोष ही मानता है। सच कहूं तो मेरा मन एक अनोखे अहसास में झूल रहा है। अक्सर स्वप्न में वही कन्या मेरी नींद चुराती है। क्या यही प्रेम है। “
   अश्व ने समर्थन में अपना सर हिला दिया। कह नहीं सकते कि अश्व पूरी बात समझा भी या नहीं। पर लगा कि वह राजकुमार की विरह पीड़ा समझ गया। 
” मित्र। तुम्हारी गति तो सर्वत्र है। फिर तुम्हीं तो मुझे उसके पास तक लेकर जाओंगें। यदि मेरा प्रेम सच्चा है तो उस सच्चे प्रेम की पूर्णता तुम्हारे सहयोग के बिना किस तरह।” 
   अश्व ने सर हिलाकर राजकुमार का सहयोग करना स्वीकार कर लिया। वैसे मिलन और विरह तो देव के अधीन बताये गये हैं। और इस समय राजकुमार ऋतुध्वज को कुवलय जैसे दिव्य अश्व का साथ यही सिद्ध कर रहा है कि मिलन की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है। 
   एक दिन। भगवान भाष्कर ने धरती को अपनी रश्मियों से रोशन करना आरंभ ही किया था। ठंडी ठंडी हवा बह रही थी। मौसम कुछ उसी सुबह जैसा था जबकि राजकुमार प्रथम बार मदालसा से मिले थे। खुशनुमा मौसम राजकुमार की विरह वेदना को बढा ही रहा था। मन ज्यादा खिन्न हो रहा था। पर विधाता का विधान, एक प्रेमी को अपनी प्रेमिका की याद में कुछ पल व्यतीत करने का अवसर भी न मिला। 
   अचानक निमिषारण्य के बाहर वन्य इलाके से पशुओं की चीख पुकार और इधर उधर भागने का स्वर सुनायी दिया। कुवलय इन परिस्थितियों से ज्यादा परिचित था। यही वह क्षण था जिसके लिये महर्षि गालव राजकुमार को निमिषारण्य में लेकर आये थे। वन्य जीवों का शोर अकारण न था। रहस्यमई शूकरों का झुंठ जिन्हें असुर भी माना जा रहा था, आखेट पर निकले थे। निमिषारण्य के वन्य सिद्धांत को त्याग बेरहमी से आखेट कर रहे थे। संभव है कि उन शूकरों की मंशा आश्रम तक आकर मुनियों का भी आखेट करने की थी। पर तपस्वियों के तपोबल से शक्तिमान उस तप स्थली में उनका प्रवेश ही संभव न था। 
  कुवलय के हिनहिनाने और बार बार सचेत करने पर राजकुमार ऋतुध्वज दिवा स्वप्न से बाहर आये। तुरंत ही अपने अस्त्र शस्त्र लेकर कुवलय अश्व पर आरूढ हो गये। और फिर कुवलय हवा से बातें करता राजकुमार को लेकर वन के उस भाग में ले गया जहाँ से निरीह पशुओं के चीखने की आवाजें आ रही थीं।
   सचमुच अकल्पनीय दृश्य था। बहुत सारे मृग, और नीलगाय ही नहीं अपितु गजराज जैसे बड़े पशु एवं सिंह, व्याघ्र जैसे शक्तिशाली पशु भी उन शूकरों के समक्ष बेबस अपने प्राणों की रक्षा के लिये अंतिम प्रयास कर रहे थे। इतने बड़े वराह राजकुमार ने कभी नहीं देखे थे। 
  राजकुमार के धनुष से छूटे तीरों से शूकर घायल होने लगे। तथा जैसे ही प्रथम शूकर मृत्यु को प्राप्त हुआ, सिद्ध हो गया कि तपस्वियों का अनुमान सत्य था। मृत्यु को प्राप्त होते ही असुर अपनी माया शरीर को त्याग अपने वास्तविक रूप में आ चुका था। 
   शूकर वेषधारी असुरों ने राजकुमार का प्रतिकार करने का प्रयास किया। पर सच्ची बात है कि अंधकार का पूरा समूह मिलकर भी भगवान सूर्य का सामना नहीं कर सकता है। जैसे ही अर्धचन्द्राकार तीर से शूकर समूह का नैंत्रत्व कर रहा विशाल वराह घायल होकर भूमि पर गिरा, सारे शूकर राजकुमार का विरोध करना छोड़ भाग गये। विपत्ति में कौन किसका साथ देता है। जब सामने मृत्यु खड़ी हो तो अधिकतर तो अपने ही प्राणों की रक्षा करना ही उचित मानते हैं। मृत्यु का डटकर सामना करना तो उन साहसियों का कार्य है जो जीवन को ही अनित्य मानते रहे हैं। जिनके लिये खुद के प्राणों से अधिक मूल्य समाज और राष्ट्र का होता है। जो भोगों में भी जीवन तलाशते रहते हैं, वे वास्तव में भीरु भी होते हैं। 
    अर्धचन्द्राकार वाण से घायल विशाल वराह अकेला रह गया। फिर वह भी अपनी समूची शक्ति एकत्रित कर खड़ा हुआ और प्राण बचाने को भागने लगा। पचासों योजन की दूरी तक भागता रहा। पर हर बार उसे अपने पीछे सुनहरे अश्व पर आरूढ राजकुमार आता दिखा। वैसे उसे यह यथार्थ नहीं लगा। लगा कि मृत्यु का भय ही उसका पीछा कर रहा है। संसार के सभी अश्वों की एक निश्चित सामर्थ्य है। इतनी दूर कोई भी अश्व दोड़ ही नहीं सकता। फिर यह मन का भ्रम ही तो है। एक बार अपने गूप्त गढ में पहुंच फिर इस भय का इलाज करूंगा। आखिर नेता को भयभीत नहीं होना चाहिये। नेता के भयभीत होते ही सारे साथी भी भयभीत हो जाते हैं। फिर बहुधा जीती हुई जंग में भी हार ही हाथ लगती है। 
  वराह एक भूमिगत सुरंग में घुस गया। अनुमान करते हुए कि उसका पीछा सत्य हो या एक भ्रम पर सत्य है कि इस अंधेरे मार्ग में कोई नहीं आ सकता। 
  वराह का भ्रम वास्तव में भ्रम न था। कभी न थकने बाले अश्व कुवलय पर आरूढ राजकुमार ऋतुध्वज उस विशाल वराह के पीछे ही आ रहा था। वराह रूपी असुर का यह अनुमान कि अंधेरी सुरंग में किसी पृथ्वीवासी का प्रवेश असंभव है, गलत सिद्ध हुआ। कुवलय के साथ राजकुमार भी उसी सुरंग में घुस गये। 
  राजकुमार को हाथ से हाथ नहीं दिख रहा था। पर कुवलय को इस सुरंग में राह ढूंढने में कोई परेशानी नहीं आ रही थी। दोनों ही इन अंधकार भरे राह में भविष्य से अनजान थे। इस समय राजकुमार को केवल अपना कर्तव्य ध्यान था। कर्तव्य के समक्ष अपने प्रेम को भुला देने बाले राजकुमार ऋतुध्वज को ज्ञात ही नहीं था कि प्रेम का आरंभ ही कर्तव्य से होता है। कर्तव्यों को भुला देने बाला प्रेम कभी भी कोई प्रेम नहीं होता। प्रेम की राह कर्तव्यों की पूर्णता पर निर्भर करती है। राजकुमार अनजान था कि जिन अंधेरी सुरंग में वह अपना कर्तव्य पूर्ण करने घुसा है, वही सुरंग उसके प्रेम की भी राह है। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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