असुर नगरी एकदम शांत थी। लगता ही नहीं था कि यहाँ कोई रहता भी है। पर अभी भी जलती हुई अग्नि, गर्म हो रहे तेल के कड़ाहे, नगर की भव्यता व्यक्त कर रही थी कि जैसा दिख रहा है, वह नहीं है। हालांकि एक संभावना धोखे की भी थी। वैसे भी आमने सामने का समर करना वीरों का ही काम है। असुर तो अक्सर छद्म युद्ध के लिये ही जाने जाते रहे हैं।
उचित था कि राजकुमार वापस चला जाता। असुरों का स्थान उसे ज्ञात हो चुका था। बाद में वरिष्ठ लोगों के परामर्श से इस समस्या का निदान करता। पर एक तो युवावस्था का जोश और ऊपर से मुनियों के विश्वास से आत्मविश्वासी हुआ राजकुमार वापस लौटने के स्थान पर नगरी में भ्रमण करने लगा। मानों कि शत्रु नगरी को अकेले ही अपने शरों से ध्वस्त करने का विचार हो।
दूसरी तरफ कुण्डला राजकुमारी मदालसा को स्वस्थ करने का प्रयास कर रही थी। शीघ्र ही मदालसा की चेतना वापस आयी और वह दहाड़ मारकर रोने लगी। कुण्डला ने मदालसा को इतना वैचेन उस दिन भी नहीं देखा था जबकि वह मदालसा को ढूंढते हुए पातालकेतु की नगरी में आयी थी। आत्मदाह का प्रयास करने का उद्देश्य भी एक सम्मानित जीवन जीने की चाह ही थी। पर अब जबकि मदालसा को सम्मान दे उसका जीवन साथी बनने कोई आ चुका था, उस समय मदालसा का इस तरह रुदन। कुण्डला रहस्य समझ नहीं पायी।
शांत वातावरण में छोटी सी ध्वनि भी दूर दूर तक जाती है। फिर इस शांत नगरी में मदालसा का रुदन गूंजकर नगरी को जीवंत करने लगा और राजकुमार ऋतुध्वज को भी उसका पथ दिखाने लगा। राजकुमार रोती हुई कन्या की ध्वनि का अनुसरण कर उसी लक्ष्य की तरफ बढ रहा था जो कि विधि ने पूर्व निश्चित कर रखा था।
कुण्डला के बार बार पूछने पर मदालसा ने अपनी प्रेम गाथा उसे सुना दी। आह। दुखद है कि इस मन में किसी राजकुमार के लिये प्रेम उमड़ा।ऐसा कोई दिन नहीं जबकि उसके विरह की अग्नि ने मेरी तड़प न बढाई हो। ऐसी कोई रात्रि नहीं जबकि वह मेरे स्वप्नों का विषय न बना हो। आज स्थिति वह है कि माता कामधेनु की वाणी के अनुसार मेरा यथार्थ जीवन साथी आ चुका है। पर मेरे मन में उस राजकुमार का प्रेम सजीव रूप रख निवास कर रहा है। मुझे उलाहना दे रहा है। क्या यही है एक स्त्री का प्रेम। अवसरवादिता तो कोई प्रेम नहीं। प्रेम तो निर्मल सरिता का प्रवाह है जिसका एक ही लक्ष्य सागर होता है।
वैसे कुण्डला को मदालसा की मानसिकता का कुछ अनुमान था। पर वह जानती थी कि माता कामधेनु का वचन किसी का प्रेम भंग तो नहीं कर सकता। उसे विश्वास था कि माता कामधेनु का वचन दो प्रेमियों को मिलाएगा ही। माता कामधेनु का वचन किसी प्रेम कहानी को अपूर्ण नहीं रखेगा।
विश्वास मदालसा को भी था। इसी विश्वास का अबलंबन ले वह विपत्ति का यह समय गुजार पायी थी। हमेशा उसने स्वप्न में अपने मुक्तिकर्ता के रूप में राजकुमार ऋतुध्वज को ही तो देखा था। पर सत्य यह भी था कि अंतिम क्षणों में मदालसा का इस तरह विचलित होना भी उस प्रेम की ही एक लीला थी।
आज तक न तो राजकुमार ने और न मदालसा ने कभी दूसरे से अपने प्रेम का यथार्थ निवेदन किया था। दोनों को ही दूसरे के मन की दशा का कोई ज्ञान न था। पर आज स्थिति बदल चुकी थी। मदालसा की कुण्डला के समक्ष अपने प्रेम की स्वीकारोक्ति गुप्त रूप से उसका प्रणय निवेदन बन गयी।
मदालसा के रुदन की ध्वनि का अनुसरण करते राजकुमार एक बड़े महल के बाहर पहुंच गया। फिर निर्भीक हो महल में जाने लगा। पर कुवलय ने उसे अकेले न जाने दिया। एक पशु भी अनजान स्थल की परिस्थिति को समझ रहा था। जिस अश्व के लिये नभ, गगन और जल समान हों, उसके लिये किसी भवन में प्रवेश करने में क्या समस्या। और भवन में सअश्व प्रविष्ट राजकुमार को आज वह मिल गया जिसे वह ढूंढ ढूंढकर थक चुका था। गोमती नदी के तट पर मिली कन्या मदालसा सामने थी। और सामने था मदालसा का उसके प्रति विशुद्ध प्रेम। वैसे तो प्रेम के वेग में मदालसा के प्रति उठा अविश्वास पहले ही शक्तिहीन हो चुका था। अब मदालसा के मुख से पूरी बात सुन वह अविश्वास खंड खंड हो गया। फिर शेष रहा केवल और केवल प्रेम। जो अब राजकुमार के नैत्रों से अश्रु के रूप में बहने लगा। संदेह करने की पीड़ा असह्य हो रही थी। फिर आंखों के पास जलमग्न होने के अतिरिक्त और क्या उपाय था।
एक तरफ मदालसा अपनी प्रेम कहानी कहते हुए रो रही थी। दूसरी तरफ राजकुमार उस निश्छल प्रेम गाथा को सुन रो रहा था। ऐसी स्थिति में निश्चित ही आंसुओं की बाढ आ जाती। पर कुवलय भी कम कुशल न था। जब दोनों प्रेम के वेग में खुद को भूल गये, जब दो प्रेमी निकट पहुंचकर भी निकट नहीं पहुंच पा रहे थे, उसी समय दोनों को यथार्थ में वापस लेकर आयी, कुवलय की हिनहिनाहट। भवन में एक अश्व का स्वर सुन मदालसा और कुण्डला दोनों उसी तरफ देखने लगे। और अपने प्रेम को सम्मुख देख प्रेम के अतिशय प्रवाह में मदालसा एक बार फिर से मूर्छित हो गयी।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’