कभी कभी भय भी किसी व्यक्ति को पाप कर्म से रोक देता है तथा निर्भयता भी उसे दुष्कर्मों के दलदल में ढकेल देती है।
   संभव है कि विभिन्न धार्मिक पुस्तकों में लिखे नरक आदि के वर्णन कल्पना ही हों। फिर भी विभिन्न मनुष्यों को पाप कर्मों से भयभीत तो करते ही हैं। कभी कभी भय भी मनुष्य के उत्थान का कारण बन जाता है।
   धर्म परायण और सदाचारी व्यक्ति को भी धर्म भीरु कहकर संबोधित करते हैं। फिर भय भी मनुष्य को धर्म में लगाता ही है।
   पातालकेतु की कैद में रहकर भी मदालसा का सतीत्व असुरों के भय के कारण ही सुरक्षित रहा। असुर के मन में यदि कुवासना ही नहीं होती तो वह एक कन्या का हरण ही क्यों करता। पर हरण के बाद भी उस कन्या के सतीत्व के तेज से भयभीत ही रहा।
   राजकुमार ऋतुध्वज के नगर आगमन के बाद उसके और मदालसा के विधिवत विवाह के अवसर पर भी असुरों द्वारा कोई व्यवधान उत्पन्न न करने के पीछे भी कारण भय ही था। भय के कारण असुरों का साहस अपने भवनों से बाहर निकलने का ही नहीं था।
   पर अब जब राजकुमार अपनी भार्या मदालसा के साथ कुवलय अश्व पर आरूढ हो असुर नगरी के मार्गों में भ्रमण करता हुआ उन्हें चुनौती दे रहा था, तब उसकी ललकार उन भरभीत असुरों के मन में ग्लानि पैदा कर रही थी। वैसे यदि राजकुमार चुपचाप नगरी से निकल जाता तो संभवतः कोई असुर उसका पीछा न करता। पर संभवतः राजकुमार को इन असुरों को दंड देना उचित लगा। आखिर वह आया भी इसीलिये था। शायद उसे खुद की क्षमता पर कुछ अधिक ही विश्वास था। अथवा संभव है कि मदालसा की इच्छा ही इन आतताइयों को दंडित कराने की रही हो। सचमुच एक स्त्री का मन बहुत जल्द विषाद के क्षणों को नहीं भूलता है।
   पुरुषों के मन को अक्सर स्त्रियां ही नियंत्रित करती हैं। स्त्रियाँ ही पुरुषों को उत्थान के पथ पर बढाती हैं और वे ही उन्हें पतन की राह पर गिराती हैं।
   असुरों द्वारा राजकुमार द्वारा दी जा रही चुनौतियों को सुनना असह्य हो रहा था। पर उससे भी अधिक असुर स्त्रियों का मदालसा को स्वतंत्र और सम्मानित जीवन की राह पर आगे बढते देखना हो रहा था। वैसे इन स्त्रियों में बहुत अपने घर में ही सम्मान के लिये तरसती आयीं थीं। पर एक कन्या का जीवन संवरते देख उनका मन ईर्ष्या के सागर में डूबने लगा।
   फिर रंभा और दूसरी असुर स्त्रियों द्वारा उलाहना दिये गये असुर अपने शासक पातालकेतु के साथ राजकुमार का सामना करने आ गये। राजकुमार ऋतुध्वज द्वारा छोड़े तीरों से आहत होकर अपने प्राण गंवाने लगे। जल्द ही वे असुर अपने शासक के साथ अपने प्राण गंवा बैठे। नगरी में एक बार फिर से स्त्रियों का रुदन गूंजने लगा।
    चलने से पूर्व भी मदालसा उन स्त्रियों के दुख में सम्मिलित हुई। उन्हें धर्म के राह पर चलने और बच्चों को सही राह की शिक्षा दी। वैसे कुछ स्त्रियों को मदालसा की बातों में सच्चाई लगी। उन्होंने भविष्य में सही तरह जीवन जीने का और बच्चों को सही राह दिखाने का निश्चय भी किया। पर उन कुछ की संख्या बहुत कम थी। रंभा सहित अधिकांश स्त्रियों को मदालसा की सहानुभूति वास्तव में उपहास ही लग रही थी। मन में वैर का बीज अंकुरित हो गया। इस समूचे विनाश जो कि वास्तव में अधर्म और स्त्रियों द्वारा भी सही राह न दिखाये जाने का ही परिणाम था, के पीछे केवल और केवल मदालसा की भूमिका मान सही तथ्यों का अवलोकन करने की भी चेष्टा नहीं की गयी।
    जब विवाह ही करना था तो असुर राज ने भी तो विवाह का ही प्रस्ताव दिया था। रानी बनना था तो असुर राज से विवाह कर भी वह रानी ही बनती। सचमुच मदालसा के इस विवाह का कारण तो असुर नरेश को मृत्यु शैया पर सुलाने की इच्छा ही थी। फिर रंभा के मन में मदालसा के प्रति द्वेष का सागर उफान भरने लगा। अभी प्रतिकूल परिस्थिति समझ भले ही रंभा शांत थी पर लगता नहीं कि जिस द्वेष की नौका पर वह सवारी कर रही थी, वह उसे भविष्य में भी शांत रहने देगी।
   कुण्डला निमिषारण्य में तपस्वियों के साथ रुक गयी। वही तपस्या कर अपना जीवन व्यतीत करने लगी। राजकुमार ऋतुध्वज और मदालसा ने महर्षि गालव की आज्ञा लेकर अपने राज्य के लिये प्रस्थान किया।
  कुलगुरु तुंबुंर के निर्देश पर राज्य में पहले से आयोजन की तैयारियां थीं। बस राजकुमार और उनकी भार्या मदालसा के आगमन की प्रतीक्षा थी। प्रजाबत्सल और धर्म परायण राजकुमार की पसंद और भविष्य की रानी के नगर में स्वागत की पूरी तैयारी थी।
   राजकुमार ने मदालसा के सहित पिता को प्रणाम किया। राजा शत्रुजित के लिये यह विशेष आनंद का क्षण था जबकि राजकुमार असुरों का संहार कर गुणवती कन्या से विवाह पर वापस आये थे। पुत्र को उन्होंने आशीष दिया पर भावावेश में पुत्रवधू को अपने गले से लगा लिया। सचमुच एक पुत्री होने का सुख अलग ही है। आज तक इस सुख से बंचित राजा शत्रुजित ने मदालसा को पुत्रवधू के स्थान पर पुत्री ही अधिक समझा।
   राज्य में बड़ा उत्सव मनाया गया। राजकुमार ऋतुध्वज ने अपने विद्यार्थी जीवन के सभी मित्रों को आमंत्रित किया। सुजान और कापाली एक बार फिर से मदालसा से मिले। इस बार भात्रविहीना मदालसा ने सुजान और कापाली को रक्षासूत्र बांध उनसे अपना संबंध भी तय कर लिया।
   राजकुमार ऋतुध्वज और मदालसा का जीवन खुशियों में बीत रहा था। मदालसा राजकुमार के साथ मिलकर राज्य कार्य में भी हाथ बंटाने लगी। प्रजा भावी रानी की योग्यता देख मंत्रमुग्ध थी। प्रजा की नजरों में मदालसा के लिये सम्मान और प्रेम बहुत अधिक था।
   दूसरी तरफ निमिषारण्य में योगिक क्रियाओं का अभ्यास कर एक दिन कुण्डला महर्षि गालव से आज्ञा लेकर योगाग्नि के माध्यम से संसार बंधन से मुक्त होकर भगवान श्री हरि के चरणों की नित्य निवासिनी बन गयी। आवागमन के चक्र से मुक्त हो अपने पति पुष्कर माली की अनुगामी बन गयी। प्रेम से आरंभ कुण्डला वैराग्य मार्ग के परम लक्ष्य को प्राप्त हो गयी। 
   क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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