तेरे विरह की रात अब कटती नहीं मैं क्या करूँ ।
प्रिय से मिलन की आस लगे जगती रही मैं क्या करूँ।
बिंदी लगा कैसे लगूँ कोई न देखे मन व्यथा।
सज के ललाट भाई नहीं चुभती रही मैं क्या करूँ।
वेणी सजा ली केश में प्रिय के विरह के पुष्प से।
अब दंश बन चूसे मुझे घुलती रही मैं क्या करूँ।
चूड़ी चुभे कंगन चुभे श्रृंगार भी भाते नहीं।
पायल बजे गंभीर स्वर बजती रही मैं क्या करूँ।
संगीत की धुन नहि लुभाती, साज भी सजते नहीं।
इस पीर में पीड़ा घुसी जलती रही मैं क्या करूँ।
अति व्यथित थी देखकर उस दिन तुम्हें जाते हुए।
अश्रुधारा नयनकोरों से बहती रही मैं क्या करूँ।
बेला विरह की अति भयानक डर बहुत लगता मुझे।
सखियाँ कहें कुछ कान में सुनती रही मैं क्या करूँ।
किस्मत हमारे क्यों नहीं मेरे पिया का प्यार पाना।
तकदीर में तड़पन लिखा ये ही सही मैं।क्या करूँ।।
स्नेहलता पाण्डेय ‘स्नेह’
नई दिल्ली
पूर्णतः मौलिक एवम स्वरचित