जब होती अपनों से विरह की बेला
आंखे भी अपनी बोली कह जाता
दूर जाने के ख्याल से बेबस मन
चाहते हुये भी कुछ कह न पाता
दिलासा देता नाजुक दिल भी
सहमा-सहमा सा सिर्फ रह जाता
भविष्य के संजोय सपनो के लिए
जब अपना कोई दूर होता
अनचाहे ख्यालों से ,फिर जाने क्यूं?
मन भी जार-जार घबराता
अरमानों के सच्चे रास्ते चल
निरंतर आगे बढ़े, वही मंजिल को पाता
जिंदगी में बिन त्याग ,समर्पण के
इंसा को कुछ भी नहीं मिल पाता
जीवन में आता जब विरह की बेला
मन के संघर्ष को हमसे मिलवाता
कठिन परिस्थितियों से जो जीत गया
वही मुकद्दर का सिकंदर कहलाता
जीवन का भाव है मिलना , बिछुड़ना
समझ लिया जिसने ,वही मंजिल को पाता
मनीषा भुआर्य ठाकुर (कर्नाटक)