कोरोना का दंश खा गया था उसको, विरहिणी बना कर छोड़ा।  क्या करे सांस तो काया में अटकी। दिन तो कट जाता दैनिक कृत्यों में पर रातों को नींद नहीं आती। ऐसे ही विचलित मनःस्थिति में पलकें थीं झपकी,देखा निद्रा की देवी आई और मनुहार करते उस रूपसी से बोली “बेटी क्यों विचलित हो, इस अँधेरी रात में  तुम क्यों जाग रही हो “बेटी शब्द सुनकर उसके आँसू बहने लगे।  विषाद की घनी छाया से मुख मलिन हो चला था 
“हे देवी माँ आप कौन है?
 “मैं निद्रा की देवी हूँ बेटी, तुम्हें सुलाने आई हूँ।”
“आप यहाँ क्यूँ देवी माँ !मेरे भाग्य में तो सोना ही नहीं लिखा है।”
“मुझे माफ कीजिये मैं आपकी बात नही मान सकती देवी मैं तो विरहिणी हूँ।”
“विरह की आग में जलना ही है मुझे।”
“नहीं बेटी ऐसा मत कहो  तुम तो बड़े भाग वाली हो तुम्हें सुलाने के लिये ही तो मुझे तुम्हारे पति ने यहाँ भेजा है।”
“क्या कहा आपने उन्होंने आपको यहाँ भेजा है?”
पीतवर्णी चन्द्रमुखी को पल भर  लगा रश्मियां खिलखिला पड़ीं हों जैसे!
“हां, वो चाहते हैं कि तुम मेरी गोद में चैन की नींद सो जाओ, आओ बेटी आओ।”
फिर विषाद सघन हो चला नहीं माता मेरे पति अपना सुख वैभव त्याग कर चले गये और मैं चैन की नींद सो जाऊँ ऐसा कभी नहीं हो सकता।”
“पर बेटी तुम उनकी अर्धागिंनी हो।”
“तुम्हारे पति अपने बड़े भाई व भाभी की सेवा में तत्पर है। वो सोना भी नहीं चाहते और न ही तुझे व्यथित देख सो ही पाते हैं। उन्होंने कहा है कि तुम उनकी नींद ले लोगी तो वो निश्चिन्त होकर अपने बड़े भैया व भाभी की देखभाल कर सकेंगे।”
इतना सुनते ही “अरे! अच्छा मुझे माफ कर दीजिये। आइए माँ आइए, मैं आपकी गोद में सोना चाहती हूँ।”
      ऐसी होती है विरह की मारी विरहणी।
       लेखिका –
        सुषमा श्रीवास्तव 
         मौलिक भाव ,सर्वाधिकार सुरक्षित, उत्तराखंड
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