अंतर्मन में कोई विद्रोह का बिगुल बजा रहा है
तोड़ कर जहांँ भर की बन्दिशें आजाद हो
पंख पसार आसमान में दूर निकल जाने को
भीतर कोई बेचैन हो ,कब से छटपटा रहा है
जकड़ा पड़ा है सदियों से मोह माया के जाल में
संघर्षरत हैं खुद ही से खुद की पहचान कराने में
अब तलक जान ही नहीं पाया है कौन हूंँ
क्या मेरा अस्तित्व हैं क्या मेरा नाम हैं 
कर दिया बर्बाद जीवन सारा धन – माल कमाने में
होकर मद में चूर अंधेरों में भटकता रहता था
जाने कितने मासूमों का खून चूस पला बढ़ा
भरता गया मोतियों का खजाना पाप कमाई से
सूझ – बूझ खो बैठा माया की चकाचौंध से
बना घमंडी झूठी शानों शौकत दिखा रहा
भूल गया तू , नश्वर तेरी काया और माया भी 
मिट्टी हैं तू ,मिट्टी से बना ,मिट्टी में मिल जायेगा
खाली हाथ आया था , लौटकर खाली हाथ जायेगा
एक छोटा सा प्रकाश देखकर , आँखे चौंधिया गई 
ज्ञान दर्पण में अपना अक्ष देख कर पहचाना कौन हूंँ
सर्व शक्तिमान हूं मैं , कब से भ्रम में जी रहा था
क्षणभंगुर हूंँ मैं , समझ आया , माया नगरी छूट गई
छोड़ छाड़ कर रिश्ते – नाते , बन्धन सारे तोड़ कर 
चल पड़ा हूं  , अनंत ,अमिट ,अखंड ज्योति की ओर
जहांँ तम नहीं जरा भी प्रकाश में प्रकाश हो जाने को
नेहा धामा ” विजेता ” बागपत , उत्तर प्रदेश
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