जब सांझा चूल्हा घर में जलता था
दादी, सौंधी -सौंधी मिट्टी से चूल्हा लेप दिया करती थी
मांँ कोयला सजाकर अग्नि प्रज्वलित कर देती
मांँ, चाची, ताई हंसी ठिठोली करती हुई मिलकर खाना बनाने की तैयारी करती
एक रोटी बेलती दूजी सेंक दिया करती
पच्चास रोटियां सेंककर भी माथे पर सिकंज नहीं डालती
बड़े प्यार से अपने हाथों से खाना खिलाती
सबके खाने के बाद अंत में स्वयं खाती है
दादी अपने पोता- पोती की लाड लड़ाकर
कहानियांँ सुनाया करती
प्रेम से बनाए हुए खाने की स्वाद ही अलग होती है।
चूल्हे की फूली- फूली रोटियांँ खाकर पेट भर जाता मगर मन नहीं भरता
सांझा चूल्हा की बात ही अलग होती है
घर की आर्थिक स्थिति चाहें जैसी भी हों
एकसाथ मिल बांँटकर खाकर मन को तृप्ति मिलती थी
छोटी -छोटी खुशियां भी बहुत बड़ी लगती थी
एक साथ रहने से मेला जैसा लगता था
त्योहारों में पकवान से घर खुशबू से महक जाता
हम बच्चों की तो हर दिन मौज रहती
घर में अचार,पापड़,बड़ी,मंगोड़ी मिलकर बनाया करती थीं
वो वक्त भी क्या वक्त था
जब सांझा चूल्हा जला करता था।
शिल्पा मोदी