गुबार उठ चला, चराग़ बुझ चला
गरजी तोपें तो आसमान हुआ पहले लाल,
 फिर काला, 
फिर जाने किस- किसका वजूद मिट चला, 
झुलसे, जले, हुए कोयले इंसान
इंसानों की खातिर, 
जरूरत ही थी क्या जो, स्वयं के अहं में हुए हम, 
इतने क्रूर और शातिर, 
तेरी- मेरी जिद्द के पाटों बिच,पिस रहे सब,
बाल-वृद्ध, नर और नारी
रण दावानल विकराल, बन काल बढ़ रहा
 जला रहा दुनियाँ सारीl
कल इन्हीं कोयलों की राख पर 
कर अट्टाहास् जीत का जश्न मनायेगा कोई,
 कोई  टेक घुटने चरणों में उसके नतमस्तक हो जायेगा , 
पर इस दृश्य में पराजित होगी केवल मानवता
इतिहास के पृष्ठों में युगों- युगों तक यही
अमानवीय कृत्य जगह पायेगा l
गर लौट सको तो लौट चलो अभी भी, 
उन्मुक्त, मधुर विश्व शांति के गीत हम गाएंगे, 
टैंकों से दबी- कुचली,जली धरा पर फिर से ,
जीवनदायिनी फ़सलें उगायेंगेl
 
-निगम झा
 सशस्त्र सीमा बल
 सिलीगुड़ी
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