रेशम के धागों सी
कुछ उलझी कुछ सुलझी सी जिंदगी।
सलाइयों के उतार चढ़ाव में
कुछ यूँ सिमटी सी जिंदगी।
हर रोज अनगिनत
लम्हों से होकर गुजरती हूँ।
कुछ को धुंधला और
कुछ को दिल के करीब पाती हूँ।
तख़य्युल से उन ख़्वाबों को
दिन-रात संजोती हूँ।
जी हा!!मैं गृहणी हूँ
विश्वास की डोर में रिश्ते पिरोती हूँ।
हर सांझ-ओ-सहर
अनगिनत किस्से कहानियां गढ़ती हूँ।
उड़ा देती कुछ बिखरे ख़्वाबों में
और कुछ को स्याह अंधेरों में खुद ही
मिटा देती हूँ।
खुशी और गम से भरी जीस्त में
न जाने कितने अनमोल लम्हों को जीती हूँ।
गमों को गफ़न कर देती दिल के सन्दूक में
और खुशियों से आने वाला कल सींचती हूँ।
शीला द्विवेदी “अक्षरा”
उत्तर प्रदेश “उरई”