आलू भिंडी की सब्जी संग,
दो पराठें ही खाने वाली मैं,
लौकी की सब्जी के साथ
ठंडी रोटी भी खाने लगी।
लगता है मैं बड़ी हो गई।
अपनी जिद को करवाने के लिए
सड़क पर ही लौटने वाली मैं
अब इच्छाएं मन में समेटने लगी
लगता है मैं बड़ी हो गई।
झूले वाली चोटियों में
पूरे गाँव में फुदकने वाली मैं
जूड़े में समेट बालों को
चार दीवारी में रहने लगी।
लगता है मैं बड़ी हो गई।
अपने भाइयों संग रूठने वाली
हर खिलौने पर हक जताने वाली मैं
बच्चों के कहने भर पर
अपना हिस्सा भी उन्हें खिलाने लगी।
लगता है मैं बड़ी हो गई।
फटाखों के डर से बचपन में
माँ ,पापा ,दादी की गोद में ही रहने वाली मैं
अब फटाखों की आवाज सुनकर
रोते हुए खुद ही खुद को समेटने लगी।
लगता हैं मैं……
गरिमा राकेश ‘गर्विता,
कोटा राजस्थान