दो वक्त की रोटी कितने रंग दिखाती है। पहरे देता है कोई रात रात भर गलियों के, तब जाकर परिवार की दो समय की रोटी आती है।
जमाने की ठोकरें खाकर अक्सर इंसान निराश हो जाता है।
फिर इस तन को ढकने को,अपने अरमानों को दफना कर निकल जाता है।
परिवार को छत दिलाने को मजदूर घर से निकलता है।
रोटी, कपड़ा और मकान की खातिर पूरा दिन धूप में सड़ता  है।
मध्यमवर्गीय परिवारों में, इस रोटी, कपड़ा और मकान की कहानी अजीब हो जाती है।
औलाद के सारे सपने पूरे करने को,मां कितनी चीजों की कुर्बानी दे जाती है ।
यह रोटी,कपड़ा और मकान गलत राह भी दिखला देते हैं।
इन जरूरतों को पूरा करने को,बहुत लोग अपनी रूह को भी बेच देते हैं।
एक माली भी रोटी,कपड़ा और मकान की खातिर कई काटे हाथों में चुभोता है।
फिर जाकर कहीं उसका परिवार चैन से सोता है।
इस दुनिया में रोटी, कपड़ा और मकान की खातिर, रिश्ते भी बिखर जाते हैं।
पता नहीं क्यों सब,इस रोटी ,कपड़ा और मकान की असल अहमियत समझ न पाते हैं।
– नीति अनेजा पसरिचा
 रुद्रपुर, उत्तराखंड
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