सबकुछ अच्छे से चल रहा था। राज और रानू एक दूसरे के साथ बहुत खुश थे। रानू ने अब सास ससुर जी की बातों को इग्नोर करना सिख लिया था। उन्होंने घर पर रानू के सिर ज्यादा प्रेशर ना आए इसलिए एक हैल्पर भी रख ली थी।

वो दिन भी आया जिसका दोनों को बेसब्री से इंतजार था । रानू और राज की जिंदगी में खुशियां लेकर उनकी बेटी का आगमन हुआ । परी जैसी उनकी बेटी जैसे रानो की सारी मुश्किलों का हल लाई हो ।

देखते ही देखते नन्ही परी स्कूल जाने जितनी बड़ी हो गई । दादा दादी की लाडली परी बड़ी नखरिली थी। स्कूल भेजने से पहले उसे ढूंढने में लग जाना पड़ता था। हंमेशा दादा जी को जाकर पटा लिया करती, ” आज परी स्कूल नहीं जाएगी ! ” उसके दादा जी उसकी हर बात मानते थे ।

कई बार परी स्कूल नहीं जाती, लाड़ प्यार के कारण उसे ग़लत तरीके से बात करने पर भी कोई नहीं टोकता था । ना परी का ध्यान पढ़ाई में कभी लगता ना ही घर के कामों में। कुछ बोलने जाओ तो ससुर जी अलग डांट लगाते । रानू ने परी पर से ध्यान हटा लिया ।

कुछ समय बाद रानू और राज के जीवन में गौरव का प्रवेश होता है। गौरव को पाकर अब दोनों को ये लग रहा था कि चाहे जो हो
हम गौरव को कलेक्टर बनाएंगे। मगर गौरव के दादा दादी को कुछ और ही चाहिए था। वे तो गौरव को पुश्तैनी दूकान पर ही बिठाना चाहते थे ।

एक दिन रानो ने अपनी हैल्पर और सासू मां की बात सुनी,

” तुझे तेरे बच्चों को पढ़ाने के लिए पैसे मैं दूंगी, तू चिंता मत कर उसे पढ़ाना । ” सासू मां ने हैल्पर से कहा ।

” आप तो बहुत अच्छे हो आंटी जी, आपके बच्चे खुब पढ़ें।” हैल्पर ने खुश होते हुए कहा ।

सासु मां की बात सुन जैसे रानो को मौका मिला था, ” मां आप उन्हें तो पैसे देकर भी उनके बच्चे पढ़ाने के पक्ष में हैं, फिर अपने ही पोते पोती के पढ़ने पर रोक क्यों ! “

” हमारे पास कमी ही क्या है? वो बिचारी अपने बच्चों को पढ़ा लिखा कर बड़ा अफसर बनाना चाहती है।” सासू मां ने अकड़कर कहा ।

” इसका मतलब एक अनपढ़ अपने बच्चों को पढ़ा लिखा कर अफ़सर बनाने का सपना देख सकता है। लेकिन पढ़ा लिखा नहीं, क्योंकि मैं पढ़ी लिखी हूं। मां सोचिए ज़रा वो पढ़ी लिखी नही है फिर भी अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती है। फिर मैं तो पढ़ी लिखी हूं, आप ही बताइए मेरा सपना क्या होना चाहिए।”

सासुमा तो चली गई लेकिन रानो की आंखें भर आईं। उसे लग रहा था कि उसने एक पढ़े लिखे परिवार में शादी की होती तो आज बात कुछ और होती ।

इतने में ही सुमित्रा जी वापिस आती हैं, अपने साथ दोनों बच्चों को लेकर, ” बहू ले बेटा अपने बच्चों को खूब पढ़ाना, हमारे खानदान का नाम रोशन करना । लेकिन सुन जबरदस्ती नहीं पढ़ाना।”

रानो की आंखों में नमी और होंठों पर मुस्कान थी। आज जैसे किसी ने उसे सांसे लेने की छूट दी हो। आज उसे मां का प्यार मिल गया था।

सास बहू शब्द अब सच में बदल देना चाहिए । कोई बहू, बहू शब्द नहीं चाहती वो अपने लिए बेटा या बेटी शब्द ही चाहती है। बहू को बहुत बेगाना समझ लिया जाता है। नया जमाना है तो बहू शब्द में परिवर्तन अति आवश्यक हो गया है। बहू को बेटी बनाकर ही अपनाया जा सकता है।
ऐसी ही कहानियों के लिए फोलो करना ना भूलें दोस्तों ।
आपकी अपनी

( Deep )

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