बहुत प्राचीन बात है, काशी नगरी में नरसिंह नाम का एक प्रतापी राजा राज करता था।
राजा नरसिंह बहुत ही दयालु और बुद्धिमान था, वह अपनी प्रजा से बहुत प्रेम करता था।
राजा नरसिंह में एक विशेषता थी कि वो एक उच्चकोटि के चित्रकार थे, उनके राज्य में समय-समय पर कला-प्रदर्शनिओं का आयोजन होता रहता था।
राजा नरसिंह के दरबार में अनेक उच्चकोटि के विद्वान और कलाकार विद्यमान थे।
राजा नरसिंह के राज्य में चारों ओर समृद्धि और खुशहाली थी।
एक बार राजा नरसिंह अपने महामंत्री जयदेव के साथ बगीचे में टहल रहे थे।
“महामंत्री जी! हमारे मन में एक विचार आ रहा है”
“बोलिये राजन! अवश्य ही कोई उच्चकोटि का विचार होगा”
“महामंत्री जी हम चाहते की राज्य में कला-कौशल का विकास हो”
“जी राजन बहुत ही महत्वपूर्ण विचार है, इसके लिये हमें क्या करना होगा”
“हम चाहते हैं कि आप ग्राम स्तर पर छोटी-छोटी प्रतियोगिताओं का आयोजन कर वहाँ से चुने हुए कलाकारों की नगर के मुख्य क्रीड़ा-गृह में सार्वजनिक प्रतियोगिता के आयोजन की योजना बनायें”
“जी राजन, मैं आज से ही कार्य प्रारंभ करता हूँ”
“महामंत्री जी, स्मरण रहे प्रतियोगिता निष्पक्ष और भेदभाव रहित होनी चाहिये, यदि कोई भी उपालम्भ मिला तो दोषी को कठोर दण्ड मिलेगा’
“जी राजन, स्मरण रहेगा”
राजा से विदा लेकर महामंत्री जयदेव ने अपने विश्वासपात्र दरबारियों से मंत्रणा की।
महामंत्री ने शीघ्र ही नगर-नगर और गांव-गांव में प्रतियोगिता की उद्घोषणा करवा दी।
काशी से लगभग २० कोस की दूरी पर एक शिवगढी नामक गांव था।
उस गांव में एक केशव नाम का मूर्तिकार रहता था, केशव एक शूद्र वर्ण का युवक था।
केशव के हाथों में मानो कोई जादू था, उसकी बनायी हुई मूर्तियाँ इतनी वास्तविक प्रतीत होती मानो मनुष्य ही मूर्ति रूप में विधमान हो गया हो।
उसके हाथों से बनी हुई मूर्तियों को लेने लोग कोसों दूर चल कर आते।
ना जाने कितने ही भव्य और विशाल मंदिरों में विद्यमान देवताओं को केशव ने मूर्ति स्वरूप दिया था।
केशव जिसको भी एक बार देख लेता उसको मूर्ति रूप में ढालने की असीम कलात्मक क्षमता थी उसके अन्दर।
वह खाली समय में गांव से दूर पहाड़ियों में चला जाता और पत्थरों को मूर्ति रूप में परिवर्तित करता रहता था।
उसको अपनी छैनी और हथौड़ी सबसे प्रिय थी, जिसे उसके स्वर्गवासी पिता ने उपहार स्वरूप दिया था।
संसाधनों के अभाव और शुद्र वर्ण के कारण केशव कला के उच्च स्तर तक नहीं पहुँच पाया।
जब उसने गांव में होने वाली प्रतियोगिता के बारे में सुना तो उसने उसमें भाग लेने का मन बना लिया लेकिन गांव के उच्च वर्ग के लोगों ने एक शुद्र के प्रतियोगिता में भाग लेने का विरोध किया लेकिन जब उन्हें राजाज्ञा का पता चला तो विरोध शांत हो गया।
ग्राम स्तरीय प्रतियोगिता को केशव ने बहुत आसानी से जीत लिया।
महामंत्री जयदेव ने सभी विजेताओं को नगर के क्रीड़ा-गृह में मुख़्य प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए आमंत्रण भेजा।
प्रतियोगिता को ध्यान में रखते हुए महामंत्री जयदेव ने नगर की भव्यता के साथ सजावट करवायी तथा दुश्मन राज्यों से होने वाले औचक हमलों से बचने के लिये उच्च स्तर के सुरक्षा प्रबंध भी किये गये।
प्रतियोगिता का सभी के लिए सार्वजनिक रूप आयोजन शुरू हुआ, लगभग ३०० से ज्यादा विजेताओं ने उस प्रतियोगिता में भाग लिया।
मुख्य प्रतियोगिता में विजयी उम्मीदवारों को पुरस्कार, आर्थिक सहायता और योग्यता अनुसार राज्य में काम देने का प्रयोजन था।
जब केशव की प्रतियोगिता में बारी आयी तो उसने एक बार राजा से भेंट करने की इच्छा प्रकट की जिसे राजा ने स्वीकार कर लिया।
स्वभाव से सरल और मृदु भाषी केशव से राजा नरसिंह अत्यंत प्रभावित हुए।
राजन के दर्शन के बाद केशव ने एक बड़ा पत्थर मँगवाया और अपनी छैनी और हथौड़ी के साथ कला के सागर में डूब गया।
जब उस मूर्ति को सबके सामने लाया गया तो सबके मुंह पर यही शब्द थे,
“अदभुत,अतुलनीय,अकल्पनीय”
सिंघासन पर बैठे राजा नरसिंह और उस मूर्ति में कोई अन्तर नहीं था, केशव ने राजा नरसिंह को ही मूर्ति रूप दे दिया था।
पूरे क्रीड़ा-गृह बस केशव और उसकी बनायी राजा नरसिंह की अद्वितीय मूर्ति की ही प्रशंसा हो रही थी।
प्रतियोगिता के समापन के दिन कई उच्चकोटि के कलाकार, मूर्तिकार, चित्रकार, गायक और संगीतज्ञ पुरस्कृत किये गये और समापन संवाद में राजा ने सभी का आभार व्यक्त किया और राजा नरसिंह ने अभी को चौंकाते हुए केशव को राज्य का कला प्रमुख नियुक्त कर किया।
केशव की बनायी हुई राजा नरसिंह की मूर्ति को नगर के मुख्यद्वार पर स्थापित किया गया, जिसका अनावरण रानी दमयंती के द्वारा किया गया।
एक मूर्तिकार के रूप में केशव के लिये ये क्षण बहुत ही गौरान्वित करने वाले थे।
एक शुद्र की राजदरबार में नियुक्ति से उच्च वर्ग के मंत्रियों और सभासदों के हृदय में सांप लोट गये।
केशव ने राजा नरसिंह और महामंत्री जयदेव के समक्ष नगर में एक कला केन्द्र बनाने का प्रस्ताव रखा जिसे राजा नरसिंह ने सहज ही स्वीकार कर लिया गया।
राजा, महामंत्री और केशव की बढ़ती निकटता से राजदरबार में कुछ लोग केशव के विरुद्ध षड्यंत्र रचने में लग गये।
षड्यंत्र के प्रथम चरण में केशव के रसोईया राघव को शामिल किया गया और केशव के भोजन में प्रतिदिन थोड़ी-थोड़ी मात्रा में मादक पदार्थ मिलाना था और पेय पदार्थों में निश्चित मात्रा में मदिरा मिश्रित करवानी शुरू कर दी गयी।
“अरे आप इतने बड़े कला प्रमुख होकर भी संगीत और नृत्य का आनंद नहीं लेते हो, श्रीमन ये भी तो कला का ही एक भाग है”
राघव ने केशव के समक्ष धूर्ततापूर्ण आमंत्रण रखा।
“नहीं राघव, मेरे पास वैसे भी समय का अभाव है, मुझे यथाशीघ्र कला केन्द्र का शुभारंभ राजन के द्वारा करवाना है”
कुछ दिनों के बाद केशव को शारीरिक पीड़ा और दुर्बलता का अनुभव होने लगा।
एक दिन केशव के एक सेवक ने राघव को राजदरबार के सभासद सूरजसिंह के साथ एकांत में जाते देखा, उसे कुछ सन्देह हुआ इसलिए वो उनके बीच होने वाले वार्तालाप को सुनने का प्रयास करने लगा,
“क्या हुआ राघव ? अभी तक परिणाम क्यों नहीं मिल रहा है, स्मरण रहे यदि सफलता नहीं मिली तो तुम्हें मृत्युदंड मिलना सुनिश्चित है, यदि सफल हुए तो स्वर्ण मुद्राओं से तौल दिए जाओगे “
“नहीं श्रीमन, परिणाम आना प्रारंभ हो चुका है, कुछ ही दिनों में वो बिस्तर पकड़ लेगा”
“उत्तम है ये लो, थोड़ी सी और मात्रा बढ़ाओ, राजदरबार में अपने निकट आसान पर एक शूद्र को देखना असहनीय हो रहा है”
कहकर सूरजसिंह ने एक पोटली राघव को थमा दी, राघव ने पोटली अपने वस्त्रों में छुपा ली।
सेवक को उस षड्यंत्र को समझते देर ना लगी कि उन लोगों का लक्ष्य क्या है।
सेवक ने बिना समय गँवाये कलाकेन्द्र में जाकर सारी घटना विस्तृत रूप से केशव को सुना दी।
केशव के चेहरे पर गम्भीर भाव आ गए, उन दोनों ने राघव को रँगे हाथों पकड़ने का विचार कर लिया, वो दोनों रात्रिभोज से पहले रसोईघर में जा के छुप गए।
राघव ने सम्पूर्ण भोजन बनाने के बादअपने वस्त्रों से छुपा हुआ मादक पदार्थ निकाल के भोजन में मिलाने लगा उसी समय केशव निकल कर सामने आ गया।
अचानक से केशव को देखकर राघव भयभीत हो गया,वो उसके पैरों में गिर गया।
“क्षमा श्रीमन, मैं लालच में अन्धा हो गया था, मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया, क्षमा दें, राजन को पता चला तो मुझे निश्चित ही मृत्युदण्ड दे देंगे”
राघव ने रोते हुए उसके समक्ष हाथ जोड़ के बैठ गया।
“घबराओ मत, तुम्हें कोई हानि नहीं होगी, तुम मुझे इस षड्यंत्र में सम्मिलित लोगों के नाम बता दो, किसी को कोई सूचना नहीं मिलेगी”
केशव ने उसको सांत्वना देते हुए कहा।
“श्रीमन! यह सम्पूर्ण षड्यंत्र महामंत्री जयदेव और उनके विश्वासपात्र सभासदों द्वारा रचा हुआ है”
महामंत्री जयदेव का नाम सुनकर केशव निशब्द हो गया।
उसने राघव को कुछ स्वर्ण मुद्राएं देकर अपने घर जाने को कहा।
राघव ने उसके चरण स्पर्श किये, उससे अपने घृणित कृत्य के लिए क्षमा माँगी, केशव ने उसे गले लगा के क्षमा कर दिया।
अपराधबोध राघव अपने घर चला गया।
केशव ने अपने सेवक को बुलाया और सारी स्वर्ण मुद्राएं और अन्य बहुमूल्य वस्तुयें उसको दे दीं और उसे दूसरे नगर में चले जाने का निर्देश दे दिया।
“श्रीमन दो दिन बाद तो युवराज का राजतिलक है, आज ही राजमहल से आपके लिए अतिविशेष निमंत्रण पत्र स्वयं महाराज ने भिजवाया है”
सेवक ने महाराज का भेजा हुआ निमंत्रण पत्र केशव को दे दिया।
“सेवक तुम्हारी भलाई, अपने परिवार का अतिशीघ्र यहाँ से निकल जाने में है”
सेवक केशव को प्रणाम कर के वहाँ से चला गया।
रात्रि की द्वितीय बेला में जब सम्पूर्ण नगरवासी निद्रा के आगोश में थे, उस समय केशव अपने थैले में छैनी-हथौड़ी लेकर नगर से प्रस्थान कर रहा था।
समूचा नगर युवराज के होने वाले राजतिलक की तैयारियों से जगमगा रहा था।
कलाकेन्द्र के मुख्यद्वार के समीप से निकलते समय उसके मुख पर एक मुस्कान थी, जिसमें ना कोई द्वेष ना कोई बदले की भावना।
धीरे-धीरे उस सदी का एक महान मूर्तिकार उस पथरीले मार्ग से ओझिल हो गया..
रचनाकार – अवनेश कुमार गोस्वामी