हमें दिल से बुलाते हैं वो रिक्शा खींचने वाले।
हमेशा याद आते हैं वो रिक्शा खींचने वाले।।
झुलसती धूप में भी जिनके नंगे पांव होते हैं।
पसीने से नहाते हैं वो रिक्शा खींचने वाले।।
भरी बरसात में जो हम पे पर्दा तान देते हैं। 
वो खुद ही भींग जाते हैं वो रिक्शा खींचने वाले।।
हमेशा चाहते हैं सिर्फ वो दो जून की रोटी।
नहीं ज्यादा कमाते हैं वो रिक्शा खींचने वाले।।
कंपाती सर्दियों में भी मिलेंगे चंद कपड़ों में।
हमेशा कपकपाते हैं वो रिक्शा खींचने वाले।।
भरी नोटों से थैली घर किसी की छूट जाए तो।
उसे बापिस दिलाते हैं वो रिक्शा खींचने वाले।।
अचानक हो कहीं पर जब कभी भी बंद हड़तालें।
तो भूखे लौट जाते हैं वो रिक्शा खींचने वाले।।
किसी सरकार ने अब तक नहीं पूछा है आकर के।
कि कैसे घर चलाते हैं वो रिक्शा खींचने वाले।।
बड़े खुद्दार हैं रावत नहीं लेते हैं फोकट में।
सदा मेहनत की खाते हैं वो रिक्शा खींचने वाले।।
रचनाकार
भरत सिंह रावत
भोपाल
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