ये अक्षर नहीं बंद दरख्तों से झांकते रोशनदान हैं।
खुलता जिससे विहंगम दृश्य है,
स्वप्न को अर्थ देते,मृग शावकों सी कुलाच भरते हैं।
स्वप्न वजह देती जीने की,,
न हो अगर मृत हो जाए आदमी!
ये अक्षर••• शब्द गढते••अर्थ ढूंढते…
अंध कूप से बाहर की दुनिया दिखाते!
रहट बन जाते हैं ,अभिप्सु बन कामनाओं का पंथ तरासते..
हमारे चीर सहचर बन जाते हैं।
हैं जीवित जब तक स्वप्नों का मायाजाल
हम भी मुसाफिर हैं यहां..
खो गए जिस दिन स्वप्न के अवलम्ब से,,
स्पंदनहीन हो जाए जीवन भी।
ये सखा है,बंधु भी।
ये सृजन के आधार स्तंभ!!
और मृतप्राय के कायाकल्प!!
वह दृग वृक्ष जिस पर लिपटते आरोह की हम अमरबेल हैं।
यही पथिक बनाते,गंतव्य तक पहुंचाते ,,
फिर नवीन सृजन के द्वार खोलते…
साहित्य की अभिप्रेरणा से अनंत आकाश की उङान भरते..
अक्षर चमकते जुगनुओं सी अंधेरे में आशाओं के दीप हैं।
डाॅ पल्लवीकुमारी”पाम”
अनिसाबाद, पटना,बिहार