बचपन में  रेलगाड़ी में जल्दी से चढ़कर और कूदकर बच्चों का खिड़की वाली सीट पर बैठना, सीट ना मिलने पर बैठे हुए यात्री से सीट मांगना ,कितना मनमोहक था ।
छोटा बच्चा देमख यात्री भी थोड़ा सा सरककर पहले बच्चे को बैेठाते या अपनी ही गोद में बैठा लेते ।
रास्ते भर बच्चे शोर मचाते देखो ,वह पेड़ पीछे छूट गया और नदी भी छूट गई, देखो देखो घर छूट गए ,वह देखो कितने सारे आम के पेड़ ,दूर-दूर तक खेतों को देखकर खुश होते ।
पुल पर से गुजरती ट्रेन के नीचे सड़क देख बच्चे चिल्लाते अरे हमारे नीचे तो लोग जा रहे हैं ,हम उन से ऊपर जा रहे हैं।
कभी-कभी खिडकी वाली सीट पर बैठे बच्चे गांव से गुजरती ट्रेन के साथ भागते बच्चों को देखकर खुशी से ताली बजाते ,और कहते हैं हमने उन्हें पीछे छोड़ दिया, हम तो आगे पहुंच गए ।
वह तो बहुत पीछे रह गए, पर यह सब बचपन में बचपना था ,पर अब देखती हूं सच में सब कुछ आगे आगे बढ़ने के लिए हमने बहुत कुछ पीछे छोड़ दिया।
हमारे बचपन को सहेजे हुए हमारा प्यारा घर, वह नीम का पेड़ भी जरूर हमें याद करता होगा ,जो अपनी बाहों में पड़ी रस्सी पर हमें झूला झूलाता था ,और हम पींगे भर भरकर हवा से बात करते थे , घर के बीच में जो हमने  आम की गुठलियों बोईं थीं,  हरे भरे आम के पेड़ पर  फल लगते होंगें और हमको जरूर याद करते होंगे ।
अमरुद के पौधे लगाते हुए  हम लोगों ने कितना शोर मचाया था  और  पानी से सींच सींच कर रोजाना उसके  बड़े होने की प्रतीक्षा करना कितना रोमांचक रहा, आम और अनार के पेड़ों को आज कितने बड़े हुए देखना और  बार-बार पानी डालना  , आज फलों से लदे वह आम और अनार के पेड  अपनी मिठास हमारे लिए संजो कर रखते होगें ।
कोने में  संभाल कर रखी गई मांजे की चरखी  जिस पर लिपटा माझा हमारी पतंग को आसमान की सैर कराता था, और हमारी पतंग आसपास की पतंग को काट कर हमें विजेता बनाती थी ,जरूर याद करती होगी हमें ।
जिस साइकिल पर  हमने पहली सवारी की  ददोस्तों के बीच नई साइकिल के साथ अपनी उम्मीदों को पंख लगाए, अभी भी हमारी यादों को अपने में समेटे होगी, 
हमको याद कर खुश होने वाली गांव की चौपाल जरूर हमारा इंतजार करती होगी बहुत आगे आ गए और अनजाने से चक्रव्यूह में फंसे हम अपने बीते दिनों से मिलने जाने के लिए बेबस नजर आते हैं ।
एक अनजाने से  मोहपास में बंधें ,हम पीछे के दिनों को याद करके एक नई उष्मा महसूस करते हैं, आगे भविष्य की आशाओं और उम्मीदों को उडान दे रहे हैं और आगे बढ़ते 
बढ़ते अपने पैरों में यादों की जंजीरों को पाते हैं ।
जया शर्मा
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