शीर्षक- ” मोड़”

जीवन में चलते-चलते,
जाने कितने मोड़ गुज़र जाते हैं,
कुछ उजले,कुछ काले,
चाहे-अनचाहे,रंग-रंगीले, कुछ बेरंग भी।
गिरते-पड़ते,उठते-भागते,
मुड़- मुड़कर  यूँ ही गुज़रती है ज़िन्दगी।
कभी न मिली फुर्सत पीछे मुड़कर देखने की।
जो समक्ष आ पड़ा, निपटाते चले।
अब आ पहुँचे हैं उस मोड़ पर,
जिसे कह सकते हैं इस जीवन का अंतिम पड़ाव।
जहाँ है फुर्सत ही फुर्सत,
जिसे बहुत खोजा था अनगिनत बार,
   मुलाकात हुई न एक बार।
अब पता नहीं इस मोड़ का ,
कितना लम्बा – कितना गहरा?
इक दूजे को साथी का कबतक होगा साथ?
स्वजीवन का मोह नहीं तनिक भी,
प्रभु की लीला प्रभु ही जाने कबतक दिया में जलेगी बाती?
एक आस विश्वास बनाए ठहरे हैं इस मोड़ पर आकर।
           रचयिता —
          सुषमा श्रीवास्तव
         मौलिक कृति,रुद्रपुर, उत्तराखंड।

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