मैं भी विधाता की रची तस्वीर हूं तेरी तरह,
सींचकर पसीने से ईंट को, दीवारें बनाता हूं,
पर खेल तो देखिए, हमारी भी किस्मत का,
दो घड़ी भी घर में आराम कहां पाता हूं।
तोड़ता हूं पत्थड़, भव्य मंदिर निर्माण के लिए,
पर ईश्वर की कृपादृष्टि से वंचित रह जाता हूं,
मेरे जीवन में नहीं, भौतिक सुखों का आडंबर,
जीवन के चुनौती को, स्वीकार कर जाता हूं।
मैं खेतों से लेकर, हर कारखानों तक,
अप्रत्यक्ष अपना अस्तित्व छोड़ आता हूं,
परवाह नहीं करता खुरदुरे हाथ, नंगे पैरों की,
तुम्हें काँटा न चुभे, इसलिए पथ को सजाता हूँ।
कम पढ़ा-लिखा, पर दूर हूं छल-प्रपंच से,
छोटे से घर में, हर रिश्तों को समेटे रखता हूं,
युगों-युगों से निर्माण और विकास का साक्षी हूँ, 
फिर क्यों मजदूर कहलाता हूँ।
स्वरचित रचना
रंजना लता
समस्तीपुर, बिहार
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