मैं बचपन हूँ- हंसता हंसाता खिलखिलाता सा
माता की आंखों का तारा हूँ
पिता का मुख पर तेज हूँ जगमगाता सा!
मैं बचपन हूँ बेफिक्र सी दुनिया में जीता हुआ
नासमझ ही कह लो मुझे, कि छल फरेब आते नहीं
बडे-बडे महलों की परवाह न जिसे
मैं बचपन हूँ- हर फिक्र को कदमों की धूल संग उड़ाता सा!
मैं बचपन हूँ- अब दो पैरों पर चलने लगा हूँ
थोडा थोडा अब बडा होने लगा हूँ!
भाषाओं से अवगत होने लगा हूँ,
सच के कागज में बांध फरेब, थोडा सीखने लगा हूँ!
पढने लगा हूँ पोथियों, अंको के फेर में पडने लगा लगा हूँ,
करने पूरी उम्मीदे सबकी, किताबों के बोझ से दबने लगा हूँ!
मत रखो इतना भी भार मेरे कांधों पर, कि जिनकी खुशबू महका सकती है जीवन उनके होने से अब घुटने लगा हूँ!
हाँ! बहुत ज़रूरी है पढना, बहुत ज़रूरी है कुछ बनना,
फिर भी कहता हूँ-
सब कुछ न भी कर सकूँ पर, कुछ न कुछ तो कर ही लूंगा,
अभी तो जीने दो मुझको, कि, करने पूरे अधूरे से सपने
मैं थोड़ा थोडा सा मरने लगा हूँ!
मैं बचपन हूँ- बडा होने में खो जाने लगा लूँ !
शालिनी अग्रवाल
जलंधर