धारावाहिक भाग -२

आगे भगत सिंह लिखते हैं “मेरा नास्तिकवाद कोई अभी हाल की उत्पत्ति नहीं है। मैंने तो ईश्वर पर विश्वास करना तब छोड़ दिया था ,जब मैं एक अप्रसिद्ध नौजवान था। कम से कम एक कॉलेज का विद्यार्थी तो ऐसे किसी अनुचित अहंकार को नहीं पाल पोस सकता, जो उसे नास्तिकता की ओर लें जाये। यद्यपि मैं कुछ अध्यापकों का चहेता था तथा कुछ अन्य को मैं अच्छा नहीं लगता था।लेकिन मैं कभी भी बहुत मेहनती अथवा पढ़ाकू विद्यार्थी नहीं रहा। अहंकार जैसी भावना में फँसने का कोई मौका ही ना मिल सका। मैं तो एक बहुत लज्जालु स्वभाव का लड़का था, जिसकी भविष्य के बारे में कुछ निराशावादी प्रकृति थी। मेरे बाबा जिनके प्रभाव में मैं बड़ा हुआ, एक रूढ़िवादी आर्य समाजी हैं । एक आर्य समाजी और कुछ भी हो, नास्तिक नहीं होता। अपने प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने डी .ए.वी.स्कूल ,लाहौर में प्रवेश लिया और पूरे एक साल उसके छात्रावास में रहा। वहां सुबह और शाम की प्रार्थना के अतिरिक्त मैं घंटों गायत्री मंत्र जपा करता था। उन दिनों मैं पूरा भक्त था। बाद में मैंने अपने पिता के साथ रहना शुरू किया जहां तक धार्मिक रूढ़िवादिता का प्रश्न है ,वह एक उदारवादी व्यक्ति हैं । उन्हीं की शिक्षा से मुझे स्वतंत्रता के ध्येय के लिए अपने जीवन को समर्पित करने की प्रेरणा मिली। किंतु वह नास्तिक नहीं है! उनका ईश्वर में दृढ़ विश्वास है। वह मुझे प्रतिदिन पूजा प्रार्थना के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे। इस प्रकार से मेरा पालन-पोषण हुआ । असहयोग आंदोलन के दिनों में राष्ट्रीय कॉलेज में प्रवेश लिया। यहां आकर ही मैंने सारे धर्म समस्याओं यहां तक कि ईश्वर के अस्तित्व के बारे में उदारतापूर्वक सोचना -विचारना तथा उसकी आलोचना करना शुरू किया । पर अभी भी मैं पक्का आस्तिक था। उस समय तक मैं अपने लंबे बाल रखता था। यद्यपि मुझे कभी भी सिख या अन्य धर्मों की पौराणिकता और सिद्धांतों में विश्वास ना हो सका था। किंतु मेरी ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ निष्ठा थी । बाद में मैं क्रांतिकारी पार्टी से जुड़ा। वहां जिस पहले नेता से मेरा संपर्क हुआ वे तो पक्का विश्वास न होते हुए भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस ही नहीं कर सकते थे।

ईश्वर के बारे में मेरे हठपूर्वक पूछते रहने पर वह कहते “जब इच्छा हो तब पूजा कर लिया करो “।यह नास्तिकता है, जिसमें साहस का अभाव है। दूसरे नेता ,जिनके मैं संपर्क में आया पक्के श्रद्धालु आदरणीय कामरेड शचींद्र नाथ सान्याल आजकल काकोरी षड्यंत्र केस के सिलसिले में आजीवन कारावास भोग रहे हैं। उनकी पुस्तक ‘बंदी जीवन ‘ ईश्वर की महिमा का जोर शोर से गान है । उन्होंने उसमें ईश्वर के ऊपर प्रशंसा के पुष्प रहस्यात्मक वेदांत के कारण बरसायें हैं। 28 जनवरी, 1925 को पूरे भारत में जो ‘ दि रिवॉल्यूशनरी ‘ (क्रांतिकारी) पर्चा बांटा गया था ,वह उन्हीं के बौद्धिक श्रम का परिणाम है। उसमें सर्वशक्तिमान और उसकी लीला एवं कार्यों की प्रशंसा की गयी है। मेरा ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव क्रांतिकारी दल में भी प्रस्फुटित नहीं हुआ था। धारावाहिक भाग -२आगे भगत सिंह लिखते हैं “मेरा नास्तिकवाद कोई अभी हाल की उत्पत्ति नहीं है। मैंने तो ईश्वर पर विश्वास करना तब छोड़ दिया था ,जब मैं एक अप्रसिद्ध नौजवान था। कम से कम एक कॉलेज का विद्यार्थी तो ऐसे किसी अनुचित अहंकार को नहीं पाल पोस सकता, जो उसे नास्तिकता की ओर लें जाये। यद्यपि मैं कुछ अध्यापकों का चहेता था तथा कुछ अन्य को मैं अच्छा नहीं लगता था।लेकिन मैं कभी भी बहुत मेहनती अथवा पढ़ाकू विद्यार्थी नहीं रहा। अहंकार जैसी भावना में फँसने का कोई मौका ही ना मिल सका। मैं तो एक बहुत लज्जालु स्वभाव का लड़का था, जिसकी भविष्य के बारे में कुछ निराशावादी प्रकृति थी। मेरे बाबा जिनके प्रभाव में मैं बड़ा हुआ, एक रूढ़िवादी आर्य समाजी हैं । एक आर्य समाजी और कुछ भी हो, नास्तिक नहीं होता। अपने प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने डी .ए.वी.स्कूल ,लाहौर में प्रवेश लिया और पूरे एक साल उसके छात्रावास में रहा। वहां सुबह और शाम की प्रार्थना के अतिरिक्त मैं घंटों गायत्री मंत्र जपा करता था। उन दिनों मैं पूरा भक्त था। बाद में मैंने अपने पिता के साथ रहना शुरू किया जहां तक धार्मिक रूढ़िवादिता का प्रश्न है ,वह एक उदारवादी व्यक्ति हैं । उन्हीं की शिक्षा से मुझे स्वतंत्रता के ध्येय के लिए अपने जीवन को समर्पित करने की प्रेरणा मिली। किंतु वह नास्तिक नहीं है! उनका ईश्वर में दृढ़ विश्वास है। वह मुझे प्रतिदिन पूजा प्रार्थना के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे। इस प्रकार से मेरा पालन-पोषण हुआ । असहयोग आंदोलन के दिनों में राष्ट्रीय कॉलेज में प्रवेश लिया। यहां आकर ही मैंने सारे धर्म समस्याओं यहां तक कि ईश्वर के अस्तित्व के बारे में उदारतापूर्वक सोचना -विचारना तथा उसकी आलोचना करना शुरू किया । पर अभी भी मैं पक्का आस्तिक था। उस समय तक मैं अपने लंबे बाल रखता था। यद्यपि मुझे कभी भी सिख या अन्य धर्मों की पौराणिकता और सिद्धांतों में विश्वास ना हो सका था। किंतु मेरी ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ निष्ठा थी । बाद में मैं क्रांतिकारी पार्टी से जुड़ा। वहां जिस पहले नेता से मेरा संपर्क हुआ वे तो पक्का विश्वास न होते हुए भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस ही नहीं कर सकते थे। ईश्वर के बारे में मेरे हठपूर्वक पूछते रहने पर वह कहते “जब इच्छा हो तब पूजा कर लिया करो “।यह नास्तिकता है, जिसमें साहस का अभाव है। दूसरे नेता ,जिनके मैं संपर्क में आया पक्के श्रद्धालु आदरणीय कामरेड शचींद्र नाथ सान्याल आजकल काकोरी षड्यंत्र केस के सिलसिले में आजीवन कारावास भोग रहे हैं। उनकी पुस्तक ‘बंदी जीवन ‘ ईश्वर की महिमा का जोर शोर से गान है । उन्होंने उसमें ईश्वर के ऊपर प्रशंसा के पुष्प रहस्यात्मक वेदांत के कारण बरसायें हैं।

28 जनवरी, 1925 को पूरे भारत में जो ‘ दि रिवॉल्यूशनरी ‘ (क्रांतिकारी) पर्चा बांटा गया था ,वह उन्हीं के बौद्धिक श्रम का परिणाम है। उसमें सर्वशक्तिमान और उसकी लीला एवं कार्यों की प्रशंसा की गयी है। मेरा ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव क्रांतिकारी दल में भी प्रस्फुटित नहीं हुआ था।काकोरी के सभी चार शहीदों ने अपने अंतिम दिन भजन -प्रार्थना में गुजारे थे। राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ एक रूढ़िवादी आर्य समाजी थे। समाजवाद तथा साम्यवाद में अपने वृहद अध्ययन के बावजूद राजेंद्र लाहिड़ी उपनिषद एवं गीता के ‘ श्लोकों के उच्चारण की अपनी अभिलाषा को दबाना सकें ‘। मैंने उन सब में सिर्फ एक ही व्यक्ति को देखा ,जो कभी प्रार्थना नहीं करता था और कहता था ,दर्शनशास्त्र मनुष्य की दुर्बलता अथवा ज्ञान के सीमित होने के कारण उत्पन्न होता है । वह भी आजीवन निर्वासन की सजा भोग रहा है । परंतु उसने भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की कभी हिम्मत नहीं की।

क्रमशः

गौरी तिवारी भागलपुर बिहार

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Gouri tiwari

By Gouri tiwari

I am student as well as a writer

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