धारावाहिक भाग- १

यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था और यह 27 सितंबर 1931 को लाहौर के अखबार “द पीपल” में प्रकाशित हुआ था। इस लेख में भगत सिंह ने ईश्वर की उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किए हैं ,और इस संसार के निर्माण, मनुष्य के जन्म, मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ संसार में मनुष्य की दीनता, उसके शोषण ,दुनिया में व्याप्त अराजकता और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है। यह लेख भगत सिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है।

स्वतंत्रता सेनानी बाबा रणधीर सिंह 1930- 31 के बीच लाहौर के सेंट्रल जेल में कैद थे। वे एक धार्मिक व्यक्ति थे ,जिन्हें यह जानकर बहुत कष्ट हुआ कि भगत सिंह का ईश्वर पर विश्वास नहीं है। वे किसी तरह भगत सिंह की कालकोठरी में पहुंचने में सफल हुए और उन्हें ईश्वर के अस्तित्व पर यकीन दिलाने की कोशिश की किंतु असफल होने पर बाबा ने नाराज होकर भगत सिंह से कहा -” प्रसिद्धि से तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है और तुम अहंकारी बन गए हो जो की एक काले पर्दे की तरह तुम्हारे और ईश्वर के बीच खड़ी है।” इस टिप्पणी के जवाब में ही भगत सिंह ने ये लेख लिखा था।

भगत सिंह अपने लेख में लिखते हैं की (मैं नास्तिक क्यों हूँ)एक नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। क्या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान ,सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्वर के अस्तित्व विश्वास नहीं करता हूं ? मेरे कुछ दोस्त- शायद ऐसा कह कर मैं उन पर बहुत अधिकार नहीं जमा रहा हूं -मेरे साथ अपने थोड़े से संपर्क में इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए उत्सुक हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर कुछ जरूरत से ज्यादा आगे जा रहा हूं और मेरे घमंड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्वास के लिए उकसाया है। मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघरता की मैं मानवीय कमजोरियों से बहुत ऊपर हूं। मैं एक मनुष्य हूं, और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता । यह कमजोरी मेरे अंदर भी है, अहंकार भी मेरे स्वभाव का अंग है । अपने कामरेडों के बीच मुझे निरंकुश कहा जाता था। यहां तक कि मेरे दोस्त “श्री बटुकेश्वर कुमार दत्त” भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे। कई मौकों पर स्वेच्छाचारि कह मेरी निंदा भी की गई। कुछ दोस्तों को शिकायत है ,और गंभीर रूप से है कि मैं अनचाहे ही अपने विचार उन पर थोपता हूं और अपने प्रस्तावों को मनवा लेता हूं । यह बात कुछ हद तक सही है, इससे मैं इनकार नहीं करता। इसे अहंकार कहा जा सकता है !जहां तक अन्य प्रचलित मतों के मुकाबले हमारे अपने मत का सवाल है। मुझे निश्चय ही अपने मत पर गर्व है लेकिन यह व्यक्तिगत नहीं है । ऐसा हो सकता है कि यह केवल अपने विश्वास के प्रति न्यायोचित गर्व हो लेकिन इसको घमंड नहीं कहा जा सकता । घमंड तो स्वयं के प्रति अनुचित गर्व की अधिकता है। क्या यह अनुचित गर्व है! जो मुझे नास्तिक की ओर ले गया? अथवा इस विषय का खूब सावधानी से अध्ययन करने और उस पर विचार करने के बाद मैंने ईश्वर पर अविश्वास किया।

मैं यह समझने में पूरी तरह से असफल रहा हूं कि अनुचित गर्व या वृथाभिमान किसी तरह किसी व्यक्ति के ईश्वर में विश्वास करने के रास्ते में रोड़ा बन सकता है ? किसी वास्तव में महान व्यक्ति की महानता को मैं नहीं मानता हूं – यह तभी हो सकता है, जब मुझे भी थोड़ा ऐसा यश प्राप्त हो गया हो जिसके या तो मैं योग नहीं हूं या मेरे अंदर वह गुण नहीं है जो इसके लिए आवश्यक है । यहां तक तो समझ में आता है लेकिन यह कैसे हो सकता है कि एक व्यक्ति जो ईश्वर में विश्वास रखता हो सहसा अपने व्यक्तिगत अहंकार के कारण उसमें विश्वास करना बंद कर दे? इसके लिए दो ही रास्ते संभव हैं- या तो मनुष्य अपने को ईश्वर का प्रतिद्वंदी समझने लगे या वह स्वयं को ईश्वर मानना शुरू कर दे। इन दोनों ही अवस्थाओं में वह सच्चा नास्तिक नहीं बन सकता । पहली अवस्था में तो वह अपने प्रतिद्वंदी के अस्तित्व को नकारता ही नहीं है। दूसरी अवस्था में भी वह एक ऐसी चेतना के अस्तित्व को मानता है, जो पर्दे के पीछे से प्रकृति की सभी गतिविधियों का संचालन करती है। मैं तो उस सर्वशक्तिमान परम आत्मा के अस्तित्व से ही इनकार करता हूं । यह अहंकार नहीं है, जिसने मुझे नास्तिक के सिद्धांत को ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया। मैं ना तो एक प्रतिद्वंदी ,ना ही एक अवतार और ना ही स्वयं परमात्मा। इस अभियोग को स्वीकार करने के लिए आइये तथ्यों पर गौर करें। मेरे इन दोस्तों के अनुसार दिल्ली बम केस और लाहौर षड्यंत्र केस के दौरान मुझे जो अनावश्यक यश मिला, शायद उस कारण मैं वृथाभिमानी हो गया हूं।

क्रमशः

गौरी तिवारी भागलपुर बिहार

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Gouri tiwari

By Gouri tiwari

I am student as well as a writer

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