तुम गई नहीं कहीं…
यहीं हो…
मुझ में घुली सी…
मेरे मन में खिली सी…
मैं तुम्हारी प्रतिछाया…
उकृत हूँ अभी भी।
तुम हो
इस जहाँ में…
या उस जहाँ में..
खिली हो धूप सी
इस जीवन में…
मेरे मन में…
पूस की पूर्णिमा
बन दमक रही
क्षण -क्षण में।
तुम हो!!
कहीं तो हो…
इस जहाँ में..
या उस जहाँ में..
मेरे मन में हर रोज आना..
मुझे जगाना…
अपने मृदुल पुकार से..
मेरी खुशियों का कलश भर जाना।
माँ…
तुम हो और सदा रहना
मेरे मन में…
संबल बनकर
ठीठरन में
धूप बनकर…
घनी धूप में
शीतल छाया बनकर….
पूस की चांदनी में मुझे भीगाना।
मेरे मन से दूर न जाना..
— ✍ डॉ पल्लवीकुमारी”पाम