नदी के किनारे बने एक छोटे से गांव में
बूढ़े बरगद और घने पीपल की छांव में
कच्ची सड़क के पास बनी हुई बस्ती में
अपनेपन की सौंधी महक की धरती में
बना हुआ था मेरा माटी का घर ……
मोटी मोटी दीवारों से घिरा हुआ आंगन
गेरुई लाल मिट्टी से वो लिपा पुता आंगन
सारे रिश्तों को समेटे वो भरा हुआ आंगन
हंसी ठहाकों, मस्तियों से सजा हुआ आंगन
कितना प्यारा था मेरा माटी का घर……
कहीं दीनू काका थे , कहीं बड़की माई
पूरे गांव में फैले हुए थे सबके बहन भाई
ना कोई चीज अपनी थी ना कोई थी पराई
गांव भर में बांटी जाती थी प्यार की मिठाई
बहुत याद आता है मेरा माटी का घर…..
वो सरसों के फूलों से सजाई गई चोटी
वो घी और चीनी लगाकर खाई गई रोटी
वो खेलने में झगड़ा , और चुराई गई गोटी
वो शाम को तुलसी चौरे में जलाई गई जोती
कितनी यादें समेटे है मेरा माटी का घर…..
वो मेरा पुराना माटी का घर…. जो इमारत में बदल गया
संगीता शर्मा