आओ सुनाऊ,क़्या होता है मेरा मन,
बन जाऊँ तितली आज
उड़ जाऊ आज नील गगन में
बह जाऊ मंद पवन सी मैं
पर ऐसा हो सकता है क़्या…..मुमकिन ही नहीं
बन कर तितली रंग बिरंगी
फूलों पर मंडराऊ मैं,
पर ऐसा हो सकता है क्या,
मुमकिन ही नहीं,
एकांत में बैठ कुछ देर गुनगुनाऊ मैं,
खुले आसमान को आज महसूस कर जाऊं मैं
पर ऐसा हो सकता है क्या मुमकिन ही नहीं,
आज़ाद कर पाउँ अंतरात्मा को अपनी,
जद्दोजहद भरे ज़िन्दगी के सफऱ में,
पर ऐसा हो सकता है क़्या…..मुमकिन ही नहीं
दुनिया के रस्मो रिवाज से बंधा है मन
अपने वजूद को पा जाऊं मैं
सरिता सी बन तितली
इधर उधर बह जाऊं मैं,
पा जाऊँ प्रेम समंदर मैं….
पर सोच में हूँ, ऐसा हो सकता है क्या…मुमकिन ही नहीं
जी रहा मेरा मन…. जुड़ कर सबके मन से
खुद के मन का अस्तित्व पाना … मुमकिन ही नहीं….
बन जाऊँ तितली मैं
उड़ जाऊ कहीं दूर मैं…
निकेता पाहुजा
रुद्रपुर उत्तराखंड