मैं तो इक दोहरा चेहरा हूँ, 
दो रूप लिए मैं बैठी हूँ, 
इक रूप दिखाया है सबको, 
इक रूप छुपा कर जीती हूँ, 
      हँस कर मिलती हूँ दुनिया से, 
      पर छुप कर रोया करती हूँ, 
       हर जख़्म छुपाया है सबसे, 
       और दर्द समेटे बैठी हूँ, 
देखो तो भीड़ है लाखों की, 
सबसे मैं मिल के रहती हूँ, 
देखूँ जो अपनें अंदर तो, 
मैं बहुत अकेली होती हूँ, 
     लगती हूँ चुलबुल नटखट सी,
     पर दर्द की लहरों में हर पल ,
     चुपचाप बहा मैं करती हूं, 
ये शौक नहीं अब आदत है, 
दो रूप लिए मर जाना है, 
दो रूप लिए मैं जीती हूँ, 
      मैं तो इक दोहरा चेहरा हूँ, 
      दो रूप लिए मैं बैठी हूँ,
      दो रूप लिए मैं बैठी हूँ। 
अंकिता मिश्रा
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