रंग बिरंगा मेरा छाता
छाता खुलते ही घेर घुमेरदार हो जाता
बंद होकर दादा जी की छड़ी बन जाता
बरखा की बूँदै से मुझे भींगने से बचाता
तपती किरणो से मुझे झुलसने से बचाता
पगली पवन देखकर छाता फुर्र फुर्र उड़ जाता
बनकर मेरा आशियाना साथ साथ चलते जाता
जो छाता को बोझ  समझता जरूरत पड़ने पर बड़ा पछताता।
शिल्पा मोदी
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