ये मेरा शहर,
तुम बिन मुझे वीरान सा लगता है,
कि जैसे ये चाँद बिना चांदनी के कुछ अकेला सा लगता है।
काफिला तारों का कितना ही क्यों ना हो आसपास
मुझे तो इस चाँद की बेबसी का आलम कुछ मुझ सा लगता है
कि यह शहर तुम बिन मुझे वीरान सा लगता है।
याद है ना तुम्हें वो दिन वो तारीख वो साल,
ज़ब तुम मुझसे मिलने मेरे शहर आये थे
एक अरसा बीता है तुमसे मिले,
तुम्हारा आना मुझे आज भी रूमानियत सा भर जाता है।
अनदेखी मोहब्बत हो तुम मेरी, अधूरी सी,अनोखी सी 
मेरे शहर की आबो हवा आज भी इस बात की गवाह है 
ये नूर ये रौनके फीकी सी है मेरे शहर की,
 वो जो कुछ कदम चले थे तुम साथ मेरे,
वो एहसास आज भी ज़िंदा है ज़हन में मेरे
कि आज भी मेरे शहर की राहें मुझे तुम बिन अनजानी सी लगती है।
 सहरा सहरा क़र ज़िन्दगी की शाम ढलने सी लगी है 
मेरे शहर की हर रौशनी मुझे फीकी सी लगने लगी है 
कभी तो फिर से वो शाम दे जाओ मुझे,
कि ये जिंदगी भी मुझे तेरे एहसास बिन अधूरी सी लगती है।
कि ज़ब तुम आओ शहर मेरे
तो लेते आना वो मुस्कान मेरी
जो तुम बिन मुझसे रूठ सी गयी है।
ज़ब तुम आओगे शहर मेरे
मुझसे तुम्हारे कांधे सिर रख क़र सुकूँ से सोने की ख्वाईश है 
कभी आओ तुम पास मेरे.. तो पूरी क़र जाना वो अधूरी, सी वो पहली आखिरी मुलाक़ात।
निकेता पाहुजा
रुद्रपुर उत्तराखंड
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