गीली मिट्टी सा मन था मेरा
तुम्हारे इंतज़ार मे रहा,
कि एक बार-
कभी तुम आ जाते-
मुझे छू कर ढूंढ लेते मुझमें
कई संभावनाएं;
कर लेते जो ज़रा सा मंथन,
मिटा देते मेरे विकार
अपनी भावनाएं मिला कर
गूँथ लेते मुझे!
कुछ और कोमल हो जाती मैं,
कुछ और मुलायम-
हो जाते मेरे एहसास…!
चढ़ा देते मुझे,
अपने मन के चाक पर
अपनी उंगलियों के
स्पर्श से ढाल देते मुझे
अपने मनचाहे आकार में,
बन जाती मैं तुम्हारी कल्पना सी
जैसा तुम चाहते, बस वैसी
बन जाती मैं तुम सी….;
जो यह भी जो,
तुम्हें स्वीकार नही था
बस इतना ही कर देते-
अपना न बना सकते थे अगर,
छोड़ तो न देते….
भर लेते मेरे वजूद को
अपने मन के उपवन में,
कभी रोप देते कोई बीज
कहे अनकहे विचारों का
मैं कल्पनाओं के फूल खिला देती
बन कर सावन प्रेम का
पल भर को भी जो
कभी बरस जाते जो तुम
सोंधी सी खुशबू से
सांसें तुम्हारी महका देती
मगर, तुमसे यह हो न पाया
शायद!
मैं प्रतीक्षा में रही कि
झोंका बन तुम आओगे,
तुम आए भी तो
गर्म हवा से,
मुझसे मेरी नमी चुराने,
कुछ कण बिखरे थे
मेरे अरमानों के,
शायद, तुम देख न पाए
तुम चले भी गए
बिना मेरी पीड़ा जाने!
कई बार यूँ हुआ
नेनों के आसमां में
तुम छाए भी
सपनो की बदली की तरह
पर जाने क्यों हर बार
गिरा दी बेरुख़ी की
बिजलियां मुझ पर
जाने क्यों मुझसे तुम रूठ गए
फेर लिया मुँह, हो कर पराए
बिन बरसे ही तुम लौट गए
मैं इंतज़ार में रही,
हर मौसम, राह तकती
दिन गिनती, बाट जोहती रही
मगर, तुम तो मुझे बिसरा चुके थे,
तुम्हें न आना था, न आए
मेरे एहसासों की मिट्टी
अब सूखी सी होने लगी है
अब बंजर सी होने लगी हूँ
मन का भीगापन खोने लगी हूँ
नमी थी मुझमें
अंदाज़ में इख नरमी थी
अब पथरीली सी होने लगी हूँ
अब कल्पनाएं भी तो
सुगंधित नहीं रहीं
कि विरह के ताप से
प्रेम-पुष्प वेणी मुरझाने लगी है
मेरे दामन में अब
दरारें सी नज़र आने लगी हैं
आह भरती हैं अब भी
कुछ अंतिम गर्म साँसें
कि आस अब भी शेष है
बेदम से हो गए हैं
मेरे एहसास अभी,
मजर मरे नहीं हैं
अब भी कुछ सीलन
बाकी है इन दरारों के भीतर
आ जाओ, कि तुम्हारे
स्पर्श के स्पंदन से जी उठेंगी
यह जो प्रेम के बचे हुए
कुछ अंतिम अवशेष हैं
इक बार बरस जाओ
कि फिर जी उठूँ मैं
फिर तुमसे प्रेम करूँ
पंथ निहारू, पग पखारूं
फिर तुम पर मर मिटूं मैं
अब के जो तुम न आए,
मेरा दामन रीत जाएगा
किंचित जो जीवन शेष है
क्षण भर में ही बीत जाएगा।
फिर जितना चाहे नीर बहाना,
बन जाना दरिया भी चाहे,
चाहे पानी पानी हो जाना
सूखी रेत में बस कुछ
कांटे ही रह जाएँगे
फिर जीवन न खिल पाएगा
लहलहाती बगिया सी थी मैं
मुझे मरुस्थल बनाने का
एक इल्ज़ाम
तुम्हारे दामन पर लग जाएगा।
स्वरचित- शालिनी अग्रवाल
जलंधर