शब्दों को मापतोल कर महल बनाते है अब हम
कोई गिराए तो भी देख चुप रह जाते है अब हम।
घात लगाये बैठा है हर शख्स गलती गिनाने को
तोहमतें हज़ार पाकर भी चुप रह जाते है अब हम।
दुनिया के मायाजाल ने इस कदर उलझाया कि 
तस्कीन -ए-दिल की चाह में भटक रहे है अब हम।
ख़्वाब है, ख्वाहिशें है, मज़बूरी शामिल है बेहिसाब 
खुद को तकसीम कर बेबसी में जी रहे है अब हम।
लफ़्ज़ों को जबसे जब्त कर ऱख दिया संदूक में 
खामोश तक़दीर के कोरे पन्ने पलटते है अब हम।
परवाह से मिले ज़ख्म सजा संभल गये इतने कि 
बेपरवाही से जमाने की दुखी नहीं होते है अब हम।
तसल्ली है कि इक ‘आस’ आज भी है कायम
उसीकी जुस्तजू में आगे बढ़े जा रहे है अब हम।
स्वरचित
शैली भागवत ‘आस ‘✍️
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