साथियों आज दैनिक लेखन विषय के लिए रश्मिरथी समूह ने शीर्षक दिया है -: ‘मायाजाल’ तो सच कहती हूँ कि यह दुनिया ही माया की नगरी है यहाँ हर कोई किसी न किसी माध्यम से जीवन भर उलझता ही रहता है,फंसता ही जाता है।वह दिखावटी आडम्बरों से अपने को बचा नहीं पाता है।बिरले ही ऐसे होंगे जो आत्मनियंत्रण करने में कुशल होंगे पर वही इस उलझाव से स्वयं को बचा पाते हैं। इस सांसारिक मायाजाल के अनेकानेक स्वरूप हैं  अगर उनका एक एक करके विवेचन किया जाए तो घंटों लग जायेंगे पर इतना वक्त देना बड़ा दुष्कर है और पाठक भी ऊब जायेंगे। सबसे बड़ी माया तो ‘श्री’ की चहुँओर प्रसरित है। उसके मोहपाश में बंधा इंसान जाने कितने चक्करों में फंस जाता है
‘यह दुनिया माया की नगरी,यहाँ उलझ-उलझ फंस जाना है।
यद्यपि यहाँ रहना नहीं ,देश बेगाना है।
सब कुछ जानते बूझते भी इंसान स्वयं को पहले तो इस मायाजाल में डुबो देता है फिर निकलना चाहते हुए भी स्वयं को मुक्त करने में असमर्थ पाता है। मैं आपको बताऊँ कि 9 वीं कक्षा से ही कबीर दास जी के विचारों और उनके रहस्यवाद से बहुत प्रभावित रही हूँ। उसी कक्षा में उनके पदों में पहला पद पढ़ा धा जो मुझे आज भी याद है और अक्सर मेरी जिह्वा पर रहता है यहाँ तक कि मेरे पति और बच्चों को भी याद हो गया है।मैं आप लोंगो को भी उससे रुबरू करवाती हूँ शायद किसी को भा जाए और मेरा लिखना सार्थक हो जाए। 
” रमैया की दुलहिन लूटा बजार, 
सुरपुर लूटा,नागपुर लूटा,तीनहु लोक मचा हाहाकार। 
श्रृंगी की मिंगी कर डारी,पाराशर के उदर विदार।
कहत कबीर सुनो भई साधो,इस ठगिनी से रहो हुसियार।।”
       ईश्वर की पत्नी कौन अर्थात लक्ष्मी जी,नर नारायण की पत्नी नारी ही तो हुई। संक्षेप में कहना चाहूँगी कि इस स्त्री रूपी माया ने जो अतीव चंचला है किसी को भी नहीं बख्शा। जब देवलोक पाताल लोक नहीं बच पाया तो मृत्युलोक की क्या बिसात? देवासुर ही नहीं बड़े बड़े ऋषि मुनिगण भी इसकी चपेट में आने से नहीं बच सके। अतएव कबीर दास जी साधुओं- संतो को सचेत करते हैं कि यदि आप सभी अपना कल्याण चाहते हैं इस माया रूपी ठगिनी से जागरूकता के साथ अपना को सुरक्षित रखने में संलिप्त रहना  इसके प्रति किसी भी प्रकार से आसक्त होने की आवश्यकता नहीं है।
    इतना ही नहीं चलिए एक पद का अवलोकन और  कर लीजिए लगे हाँथ  -:
“माया महा ठगनी हम जानी। 
तिरगुन फाँसि लिये कर डोलै, बोलै मधुरी बानी। 
केसव के कमला ह्वै बैठी, सिव के भवन भवानी। 
पंडा के मूरत ह्वै बैठी तीरथहु में पानी। 
जोगी के जोगिन ह्वै बैठी, काहू के कौड़ी कानी। 
भक्तन के भक्तिन ह्वै बैठी, ब्रह्मा की ब्रह्मानी। 
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, यह सब अकथ कहानी॥”
हम माया को बहुत बड़ी ठगनी समझते हैं, उसके हाथ में त्रिगुण की फाँसी का फंदा है और होंठों पर मीठे बोल। केशव (विष्णु) के यहाँ कमला (लक्ष्मी) बन बैठी और शिव के 
यहाँ भवानी। पंडित घर मूर्ति बनी बैठी है और तीर्थ में पानी। जोगी के घर में जोगन हो गई 
और राजा के घर रानी। किसी के यहाँ हीरा बनकर आई और किसी के यहाँ कानी कौड़ी। भक्तों के यहाँ भक्तिन हो गई 
और ब्रह्मा के घर ब्रह्माणी। सुनो भाई साधु, कबीर दास जी कहते हैं कि यह अकथनीय कथा है,इसका तो मर्म समझना होगा।
     मेरा विचार है इतना सब पढ़ने, जानने और समझने के बाद तो सुधी जनों को तो इस मायाजाल से एक निश्चित दूरी बनाकर रखनी ही बेहतर है।
धन्यवाद!
लेखिका -सुषमा श्रीवास्तव, 
मौलिक रचना,सर्वाधिकार सुरक्षित, उत्तराखंड।
Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *