कहीं दूर क्षितिज पर
मिलते धरा औ आकाश
मानो या न मानो
कभी रणभूमि में
मिलता नीर का अहसास
मानो या न मानो
खुद सुगंध तलाशे
मृग कस्तूरी वन वन
मानो या न मानो
सुख याचते जन
मांगा कुंती ने दुख वरदान
मानो या न मानो
ढकें रांका धन रेत
मिट्टी पर मिट्टी लखतीं बांका
मानो या न मानो
चकोर चकोरी, विरह प्रेमी
मिलते नहीं रात
मानो या न मानो
कुछ जिंदा मृतक सम
कुछ मरकर बने अमर
मानो या न मानो
दुख दूर की तलाश
दुख अपरिहार्य बताते बोध बन सिद्दार्थ
मानो या न मानो
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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