लिखा बहुत गया
कहा बहुत है गया
नारी कोमल नाजुक
अनसुलझी पहेली
सच है उसकी रूह
तक पहुँचना आसां नहीं
पर कभी किसी ने देखा है
उस छोटी लड़की को
भाई की गलती पर
दुनिया खराब है कह
कारावास जिसे मिल जाता है
कभी देखा है उस औरत को
शादी के अर्थों को खोजती
बिछना बन जाता मजबूरी है
कभी देखा है उस औरत को
गर्मी की ताप सहते सहते
वचनों की ताप भी सह जाती है
ठंडे पानी में हाथ डालते डालते
ज़ज्बात भी ठंडे हो जाते हैं
देखना कभी उस औरत को
नींद उचट रही हमारी
सुनती है जब
दर्द मासिक धर्म का सह
बच्चे को कंधे पर थपकी देती
चहलकदमी करती चुप कराती
सबके ख्वाबगाह का रखती ध्यान
कभी नजर डालना उस पर भी
बच्चे को सीने से चिपकाए
पत्थर तोड़ती मिल जाएगी
कभी सिर्फ ये देखने जाना”बार”
चेहरे पर छाई मुस्कान
क्या सच में उसकी अपनी है
सडकों पर इशारे करती
उस औरत से पूछना कभी
क्या सच में उसके शरीर की
अग्नि की ताप है ये
या दलदल में धकेल कोई
अपनी गर्मी शांत करता है
मानो या ना मानो
हर औरत के अंदर
बसती एक अहिल्या है
बनकर शिला उम्र भर
अडिग अविचल
झंझावातों से लड़ते
कशमकश से घिर
उत्तर उसका तलाशते
हर भार उठा लेती है
कभी जो तुमने औरत के
कशमकश का उत्तर तलाश दिया
रूह तक पहुंचने का मार्ग मिल जाएगा
रहेगी नहीं वो अनसुलझी पहेली
हर खोल से बाहर निकल
बन जाएगी ऐ जिंदगी तुम्हारी सहेली
आरती झा(स्वरचित व मौलिक)
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