माँ तू नहीं पर तेरी आहट्टे हैं,,
स्मृति की दिवारों से टकराकर गूंजती तुम्हारी तस्वीरें हैं,, 
चलचित्र की भांति मन की भित्तियों पर दिख ही जाती हैं, 
जब कभी अकेली होती हूँ।
जैसे खाली जमीं पर उग आती हैं हरी -हरी घास। 
ये जीवन की ओर खिंचती हैं 
मन को आच्छादित रखती हैं।
तपन से,चुभन से….
तुम्हारी गिनी -चुनी तस्वीरें, 
जहां समय ठहरा था…
कुछ देर के लिए ही सही।
 आज भी जीवंत है,,
अपने भावों में ….
खुशियों के लम्हों को समेटे।
जब कुछ  नहीं रह जाता,
ये तस्वीरें रह जाती हैं…
खुशियों को दामन में समेटे।
जो छलक गया वह अमृत था,
शेष कलश में खुशबू ही अब बाकीहै।
जो बीत गया वो अप्रतिम था,
मधुर यादों की अमिट छाप 
ही अब काफी है।
तू गई  नहीं कहीं,,
मुझमें ही कहीं बाकी है।
 तुझे फिर से एक नये रूप में पाना है
तू यहीं कहीं..घर की गलियों में,,मन्दिर के आरती में, 
पीङा के क्षणों में जीवंत हो उठती है।
तेरी एक सुन्दर तस्वीर बनानी है,
मां तू नहीं पर तेरी आहटें हैं..
आहटों के गूंज से ,,,
स्वर लहरियों को साधना है।
मां तेरी हंसी को अपने मन 
से अपने जीवन में उतारना है।
मां तुझे तेरे ही भावों में 
एक बार और जीना है।
तुझे फिर से एक नये रूप में पाना है।
     
                       डाॅ पल्लवीकुमारी”पाम “
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