जीवन के किरदार है जितने हंस कर उन्हें निभाती हूं,
मुझ में मेरा जरा सा होना , बहुत अखरता है ।
जब्त कभी कर जाती थी बहते आंसू, सिसकी को ,
फफक-फफक कर मेरा रोना , बहुत अखरता है ।
देख रही थी दर्पण में,बाहर कुछ खास नहीं बदला 
भीतर भीतर कुछ टूट गया लाख संभाले नहीं संभला
जब तीर चुभे विष वाणों के, घाव बहुत गहरे देते हैं
धीरे धीरे खुद को खोना, बहुत अखरता है ।
बदला मैंने खुद को इतना ,मैं मेरे जैसी न रह पाई
बंधे बांध कुछ ऐसे रिश्तों के,सरिता बन न बह पाई
दफन किए अरमान सभी ,दम तोड़ रहे मेरे संग में
कांधे पर अपना शव ढोना , बहुत अखरता है।
तुम जैसा इस  धरती  पर,  मां  अब कौन  दुलारेगा
कौन पढ़ेगा आंखों की उदासी, नजर कौन उतारेगा
मतलब के सब रिश्ते नाते , मतलब की दुनियादारी
जीवन के पतझड़ में तेरा न होना, बहुत अखरता है।
स्वरचित : पिंकी मिश्रा
भागलपुर बिहार।
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