माँ… माँ…माँ…माँ
कहाँ है!!
तू बुलाई नहीं..
मैं आई भी नहीं!!
मैं तो वैसे भी नहीं आती थी
जब तू बुलाती थी!
अनसुना कर जाती थी!
पर मैं जानती कि तू अंतिम बार बुला रही तो मैं जरूर आती।
तेरी आवाज़ गूंजती है कानों में..
जब कुछ बनाती हूँ रसोई में!
कुछ भी अकेले में कर रही होती हूँ..
सुनाई देती है तेरी फिक्र वाली आवाज़।
फिर अपने काम में लग जाती हूँ।
अचेत या सचेत…
मौन या मुखर…
बस तेरी ही प्रतिध्वनियां हैं
तू आ खड़ी होती है 
आत्मा के चैतन्य में!!
मेरे प्रत्यावहन से विवश होकर।
फिर रूकती क्यों नहीं!!
हँसते हुए.. आम्र मंजरियों की तरह सुवासित कर जाती हैं
मन के झरोखों का हर कोना!!
जैसे साँझ की बेला में दिवाकर
छुप जाते….
मेरा मन तेरी यादों की झुरमुट में छुप जाता है।
तेरे गीतों के बोल मेरे कानों में गूंजती हैं,,
कहाँ है तू??
मेरे अंतस के धरातल पर तो आकर मिल।
देख ना… फिर त्यौहार आया है..
बाबा को तेरी सिल्वट पर पीस कर बनाये दहीबड़े कितने पसंद थे!!
और भभरे के लिए तू चने की कितनी झंगरियां छिलती थी।
बाबा को पता था तू ही छिलेगी..
इसलिए तो तुझे ही कहते..
बाजार से ख़रीदे चने अब अच्छे ही नहीं लगते!!
माँ तुझे हम कितना याद करते
क्या तू जानती है?
फिर आती क्यूँ नहीं!
पर तेरे गीत आते हैँ….
 तेरी ठिठोली आती है..
तेरा उल्लास आता है…
तेरी हर बात आती है….
 पर तू नहीं आती!
मेरे प्रत्यावहन पर मेरे आत्मा के धरातल पर तो मिल!!
माँ… माँ…. माँ..माँ
कहाँ है??
होली आया है मुझे बुलाएगी नहीं!!
           
                         “पाम “
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