क्यूँ होता बेचैन मन, कोई समझ न पाए,
हर कोशिश नाकाम हो, जो प्रयास सफल हो पाए।
मन रे! धीर धरे तू खुद ही,काहे तू चैन को खोए,
पल-पल प्रतिपल गुनता जाए,भावों की धारा में खुद को
सागर की धारा में ज्यों मांझी की नाव ।
अनगिनत हैं ताने-बाने, उलझी जिसमें साँसें सबकी,
केवल कर्म-पथ का अनुगामी
ही तृप्तिभाव की चादर ओढ़े।
जन्म-मृत्यु से पार हो जावे,
ऐसा कलेवर सो पावे जो।।
रचयिता–
सुषमा श्रीवास्तव