मज़दूर की मेहनत को न कोई देखे,
जब तब मिलते यहां उसको धोखे।
कहते कुछ, होता कुछ , साथ उसके,
वेतन पर भी ठेकेदारों की नजर उसके।
मदद के नाम पर भी लुटता मज़दूर,
बदहाली में जीने को रहता मजबूर ।
कभी पैसा मांगे दारोगा मजदूरी का,
फायदा उठाते कितना उसकी लाचारी का ।
एक दिन का भी तो आराम न मिलता,
छुट्टी पर मज़दूर का वेतन कटता।
बच्चों की परवरिश कैसे वो करें,
कैसे वो रिश्वतखोरों की जेबें भरें।
रोज कमाता चूल्हा तब जलाता वो,
बिन मेहनत के कहां रोटी पाता वो।
धूप छांव में भी मेहनत करता रहता,
भूख की तपन में भी झुलसता रहता ।
मेहनत से मज़दूर की बनती इमारत,
कर्म ही होता जहान में उसकी इबादत ।
ख्वाहिश उसकी न होती बड़ी-बड़ी,
परीक्षा होती उसके भाग्य की घड़ी घड़ी।
हर गम को मज़दूर पी जाता हंसकर ,
रह जाता है वो बस श्रम में उलझकर।
झोपड़ी को तो उसकी बना रहने दो,
दर्द से कितना भरा वह ये कहने दो।
मेहनत का जो मेहनताना उसको मिला,
समझना मज़दूर के संघर्ष का हैं वो सिला।
श्रम के मज़दूर की कीमत को पहचानो ,
उसको भी अपने जैसा एक इंसान मानो।।
शिखा अरोरा (दिल्ली)