जहाँ बोझ है शैशव पर जिंदगी का

वहाँ पर मासूमियत किस तरह से
दम तोड़ती है 
ये सिर्फ सहानुभूति का ही विषय नहीं
जिंदगी की सबसे बड़ी त्रासदी भी है
जब उम्र हो पढ़ने की और बचपन को जीने की
जिम्मेदारियों तले रौंद दी जाती हैं
सारी ख्वाइशें और चाहतें
ये दम तोड़ता बचपन 
ये खुशियों की उम्र में कुचलता यौवन
क्या कभी मुक्त कर पायेगा ये जहां
ये हम सब की जिम्मेदारी ही नहीं
कर्तव्य भी है कि हम
अपने मसरूफ जीवन से कुछ
समय निकाल कर इनके बारे में सोचें और 
कोई राह निकाले
जिससे ये भी जी सकें
अपना बचपन।
                        (अनिता कुशवाहा)
                       मौलिक एवं स्वरचित
Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *