मैं अपनी जुल्फें छोड़, तेरी जुल्फ़ों को संवारुँ
बिन्दी लगाके,तेरी बिन्दी पर ही मरमिट जाऊँ
तेरे प्यार में दिल हार जाऊँ,क्या ये गुस्ताख़ी है
कैसे कहुँ,कैसे समझाऊँ कि मुझे कैसा लगता है
जब अपने जैसे को देखकर, ये दिल धड़कता है
टाई-कोट छोड़,लँहगा चूड़ियों से नाता लगता है
कैसे बताऊँ, जब अपना ही शरीर जेल लगता है
लोग क्यों नहीं समझते!हर देह की अपनी भाषा हैं
स्त्री-पुरुष ही प्रेम करेंगे, क्यों ये प्रेम की परिभाषा हैं
हर शरीर को ‘अपनी पसंद चुने’ का अधिकार मिलता है,
क्यों हमारी पसंद को ‘दूषित भावना’ का शाप मिलता है,
रोज हमें अपमानित करने,नये-2 शब्दों में बाँधा जाता है,
क्यों हर एलजीबीटी को कटघरे में खड़ा किया जाता है,
काश ये बंदिशें ना होती तो, जीवन कितना आसाँ होता,
हाँ सम्मान मिलता तो, शायद कुछ भी छिपकर ना होता,
खुलकर जीते तो शायद,किसी का जीवन बरबाद न होता,
और अपनी खुशियों को पाने, फ़िर कोई अपराध ना होता,
ध्यान से उनके जीवन की गुत्थियों को देखोगे तो पाओगे,
उन्हें ऐसा बनाने में,क्यों हमारा ही कोई अत्याचार होता है,
✍️शालिनी गुप्ता प्रेमकमल🌸
(स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित)
अभी LGBT प्राईड मंथ चल रहा है और इस कविता के माध्यम से उन्हें समझने का और कुछ उनके बारे में कहने का प्रयास किया है l “हमारा अत्याचार” से तात्पर्य.. समाज या उसकी विचार प्रक्रिया या किसी प्रकार के शोषण या पारिवारिक परिस्थिति से है, जिनसे गुजरकर उनकी वस्तुस्थिति अलग होती हैं.. जिन्हें शायद हम ना समझते हो ..से है l