बड़ी ही सामान्य सी बात है कि संसर्ग प्रभाव डालता ही है तो जब भारत का संसर्ग विविध संस्कृतियों से दीर्घकालिक या अल्पकालिक रहा है तो उन्होंने प्रभाव तो डालना ही था,फि अब तो ग्लोबलाइजेशन का युग हैं जहाँ सब कुछ सहज प्राप्य है। ऐसे में यूरोपीय संस्कृति ने भारतीय संस्कृति को अपनी जद में सहजता से लपेट लिया। जिसके बहुत से कारण और प्रकार हैं जिनपर हम आगे चर्चा करते हैं। 
       आधुनिक संस्कृति प्राचीन हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियों तथा पाश्चात्य संस्कृति का समन्वित रूप है। सौन्दर्यमय दृष्टिकोण बनाकर जीवन के विषय में विचार करना, उसे अपनाना आधुनिक संस्कृति है। ‘स्व’ के अहम की वृद्धि और निजी सुख की अभिलाषा आधुनिक संस्कृति के लक्षण हैं। प्रकृति और राज्य की विधि-विधाओं का तिरस्कार आधुनिक संस्कृति का उदेश्य है। ऐसा दृष्टिगोचर होता है इसमें कोई संदेह नहीं है।
● भारतीय संस्कृति पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव –:
       भारतीय रीति-रिवाजों के साथ ही भारतीय संस्कृति के अन्य अंगों पर भी पाश्चात्य संस्कृति का बड़ा प्रभाव पड़ा है । यह प्रभाव ‘भाषा साहित्य’, संगीत, कला, धर्म, नैतिकता आदि में स्पष्टतः देखा जा सकता है। अब आइए क्रमवार देखते हैं।
(1) भाषा –:
  भारतीय भाषाओं पर पश्चिम का भारी प्रभाव पड़ा है । भारतीय भाषाओं में जितने अधिक अंग्रेजी के शब्द आये हैं उतने अन्य भाषा के नहीं आये हैं। इतना ही नहीं बल्कि इन शब्दों के बिना भारतीय भाषाओं का शब्द- भण्डार बड़ा अपूर्ण है। वास्तव में आधुनिक सभ्यता के विभिन्न उपकरण, वस्त्र, फैशन की वस्तुएँ, फर्नीचर, यातायात के साधन, सन्देशवहन के साधन, मशीनें, खेती के औजार आदि नागरिक जीवन में सब कहीं दिखलाई पड़ने वाली लाखों वस्तुएँ भारत के लिए पश्चिम की ही देन हैं, और इस भण्डार में तीव्र गति से वृद्धि हो रही है।पश्चिम ही आधुनिक विज्ञान की प्रगति का केन्द्र माना जाता है। विज्ञान के क्षेत्र में भारत को उससे बहुत कुछ सीखना है। अतः आधुनिक विज्ञान की देन सब वस्तुओं के नाम थोड़े-बहुत परिवर्तित होकर भारतीय बोलचाल की भाषा में अपना लिए गए हैं। इस प्रकार भारत में बोलचाल की भाषा में अंग्रेजी के हजारों शब्द प्रयोग किए जाते हैं जैसे प्लेटफार्म, लैटर बॉक्स, स्टेशन, कार, बस, रेल, टिकट, सिनेमा, रिक्शा, मोटर, स्कूल, कालेज, मीटिंग इत्यादि।
(2) साहित्य –:
पाश्चात्य साहित्य का भारतीय साहित्य पर बड़ा प्रभाव पड़ा है । पश्चिमी साहित्य की रोमांचवाद, अस्तित्ववाद, मनोविश्लेषण आदि प्रवृत्तियों का स्पष्ट प्रभाव भारतीय साहित्य में उपन्यासों और कहानियों तथा नाटकों में दिखाई पड़ता है साथ ही
काव्य में पश्चिम का प्रभाव अतुकान्त और प्रगतिवादी कविताओं में देखना को मिलता है।
   पश्चिम के प्रभाव से साहित्य में छोटी कहानियों और एकांकी नाटकों का प्रचार हुआ। इसके अतिरिक्त साहित्य में धर्म-निरपेक्षता, नास्तिकता, भोगवाद, साम्यवाद, प्रगतिवाद तथा स्वतन्त्रता, समानता आदि की प्रवृतियाँ पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव है। इस विषय में अधिक विस्तार से वर्णन करने की अपेक्षा इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि पश्चिमी साहित्य की प्रत्येक प्रवृत्ति का अनुकरण भारतीय साहित्य में हो रहा है और यदि अभी नहीं हुआ तो भविष्य में होने की सम्भावना है। हिन्दी में खड़ी बोली का साहित्य पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से ओतप्रोत है। 
(3) कला –:
    भाषा और साहित्य के समान कला के क्षेत्र में भी भारतीय संस्कृति पर पश्चिम का प्रभाव स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। कला के क्षेत्र में भारतीय फिल्म संसार में नृत्य, संगीत तथा अन्य अनेक कलाओं में पश्चिम का स्पष्ट अनुकरण मिलता है। पश्चिम के अनेक वाद्यों का भारत में बखूबी प्रसार हुआ है । इनमें वायलिन, गिटार, बैंजो, माउथ ऑर्गन तथा प्यानों इत्यादि अनेक सर्व-विदित वाद्य हैं। इन वाद्यों के अतिरिक्त भारतीय संगीत विशेषतः सिनेमा संगीत क्षेत्र में भी पाश्चात्य प्रभाव परिलक्षित है । मेक-अप की कला भारत में पश्चिम के अनुकरण पर ही विकसित हुई है।  नृत्य में पश्चिमी नृत्यों का प्रचार भी बढ़ रहा है, यद्यपि इस दिशा में पश्चिम का अनुकरण बहुत कम हुआ है। चित्रकला में पाश्चात्य विचारधाराओं की स्पष्ट  छाप मिलती है। माडर्न आर्ट के नाम से भारतीय चित्रकला में आज जो प्रयोग हो रहे हैं, वे अधिकतर पश्चिम के अनुकरण पर ही हो रहे है । भवन-निर्माण कला में भारत पश्चिम का बड़ा ऋणी है । इस दिशा में भारत ने पश्चिम से कितना लिया है यह जानने के लिए अंग्रेजों के भारत से चले जाने के बाद बने सरकारी और गैर-सरकारी भवनों तथा नए नगरों पर दृष्टि डालना ही पर्याप्त होगा।
(4) धर्म –:
    भारतीय धर्म पर भी पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव पड़ा है । पश्चिम के बुद्धिवाद के प्रभाव से भारतीय लोगों में अनेक धार्मिक अन्धविश्वास उठ गये हैं। कर्मकाण्ड का प्रभाव धीरे-धीरे लुप्तप्राय हो रहा है। धर्म या तो दार्शनिक या यन्त्रवत् और व्यावसायिक हो रहा है। जो लोग धार्मिक रीति-रिवाजों को मानते हैं, वे अधिकतर रूढ़ियों के रूप में ही उसको माने जा रहे हैं।
बहुत से पढ़े-लिखे लोग अब ईश्वर में विश्वास कम करते जा रहे हैं। पुराण और धार्मिक कृत्यों अथवा ग्रंथों पर से विश्वास उठता जा रहा है। भारतीय संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न अंगों पर पश्चिम के प्रभाव के उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि भारतीय जीवन में पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है। पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से अनेक लोग तो इतने चकाचौंध हो गये हैं कि उनको भारतीय संस्कृति में सब-कुछ  गया-बीता/पिछड़ापन सा प्रतीत होता है।
       यह प्रवृत्ति उन लोगों में है जिनको भारतीय संस्कृति के वास्तविक मूल्य का पता नहीं है। स्वतन्त्र भारत में नेतागण इस ओर प्रयत्नशील हैं कि भारत की प्राचीन संस्कृति को प्रकाश में लाकर देश में उसका सम्मान बढ़ाया जाये और भारत विदेश से जो कुछ ले उसको अपनी संस्कृति में पूर्णतः आत्मसात कर ले। परिवर्तन प्रकृति का नियम है, लेकिन ये परिवर्तन हमें पतन के ओर ले जाने वाला है। युवाओं को ऐसा करने से रोकना चाहिए, नहीं तो जिस संस्कृति के बल पर हम गर्व महसूस करते हैं, वह अंधकार के रास्ते पर जाने को खड़ा है।पूरा विश्व आज भारतीय संस्कृति की ओर उन्मुख है लेकिन युवाओं की दीवानगी चिन्ता का विषय बनी हुई है। हमारे परिवर्तन का मतलब सकारात्मक होना चाहिए जो हमें बुराई से अच्छाई की ओर ले जाए। युवाओं की कुण्ठित मानसिकता को जल्द से जल्द बदलने का उपक्रम करना होगा और अपनी संस्कृति की रक्षा करनी होगी। आज युवा ही अपनी संस्कृति के दुश्मन बने हुए हैं। अगर भारतीय संस्कृति न रही तो हम अपना अस्तित्व ही खो देगें। संस्कृति के बिना समाज में अनेक विसंगतियॉं फैलने लगेंगी, जिसे रोकना अत्यावश्यक है। युवाओं को अपने संस्कृति का महत्व समझना चाहिए और उसकी रक्षा करनी चाहिए।
            लेखिका –
                सुषमा श्रीवास्तव 
                 उत्तराखंड 
Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

<p><img class="aligncenter wp-image-5046" src="https://rashmirathi.in/wp-content/uploads/2024/04/20240407_145205-150x150.png" alt="" width="107" height="107" /></p>