हमारी संस्कृति, का प्रतीक,
पुरातन से चली, आ रही साड़ी,
साड़ी ही पहनती, नारी जब,
ब्याह कर, आ जाती ससुराल,
पल्लू सीधा लिया, या उल्टा,
ससुराल में होता, सिर ढकना,
घुघंटा काढ़े, मुँह के नीचे तक,
करती रहती ,सारे दिन काम,
शुरु होती दिनचर्या, मुँह अंधेरे,
झाड़ू कटका,बर्तन भाड़े, कपड़े,
चूल्हा चौका कर,सम्हालो बच्चे,
सेवा सुश्रुषा,सबकी करते रहना,
बचा खुचा ही, खाकर पेट भरना,
जी जान से, दिन रात जुटे रहना,
पीहर की जब, याद सताये तो,
चुपके से, अश्रु की धार पोंछना,
यही कहलाता था, जीवन गौरव,
गरिमामय थी, संस्कृति भारत की,
इसीलिए शायद, बनी ये कहावत,
आज भी दिया जाता, ये उदाहरण,
अबला जीवन हाय,तुम्हारी यही कहानी,
आंचल में है दूध, और आँखों में पानी ।
     काव्य रचना-रजनी कटारे
          जबलपुर (म.प्र.)
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