भाग्य के खेल की कोई मिलती नहीं मिसाल।
चालें इसकी ऐसी होतीं ज्यों जादू की परी!
चाहे कर लो कोई जतन,पार न पाए कोई चाल।
मोल बड़ा पुरुषार्थ का,पर भाग्य तो है अनमोल। 
कितनी जुगत लगा लो तुम बिना भाग्य के  धरे रहें सब गोल। 
फिर भी सच यही कहता है अनुभव, ज़िन्दगी तो एक रेल है।कर्म, धर्म और भाग्य का रोचक बड़ा है खेल।
कर्म सबसे आगे है , बड़ा है,धर्म उससे मजबूती से जुड़ा है।
औ भाग्य, जिसका पट्टा सबके माथे पर जड़ा है,
देख, सबसे पीछे खड़ा है।
जीवन की रेल का इंजन , “कर्म” है।
फल  के डिब्बे खींचना इस का “धर्म” है,
औ सब से पीछे का डिब्बा गार्ड बना”भाग्य” है।
जो हरी झंडी दिखा कहता है,चलो,चलते रहो स्टेशन अब आया तब आया।
भाग्य का झूला झूलो, जीवन भर ऐसा झोल है।
पल भर मे स्याह सफेद हो जाता,
राजा रंक बन जाता औ रंक बने सम्राट। 
खाली झोली भर जाती,भरी भराई गुम हो जाती।
बिन बादल बरखा हो जाए,बादल उड़ उड़ जाए।
होनी अनहोनी तो है निश्चित ,कमाल भाग्य का कहलाए।
निर्बल सबल सबके ही संग भाग्य करे किल्लोल।
कर्त्ता-धर्त्ता सब एक है,सब उसका है झोल। 
रचयिता –
सुषमा श्रीवास्तव 
स्वरचित रचना
उत्तराखंड!
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