जिधर देखो उधर दौड़ते हुए लोग
बदहवास, पसीने से लथपथ लोग
सांस लेने तक को भी फुरसत नहीं
डर, कोई आगे न निकल जाए कहीं
पवन से भी तेज भाग रही है जिंदगी
नदी की तरह कल कल बह रही जिंदगी
रेत सी हाथों से फिसल रही है जिंदगी
भावना शून्य सी लगने लगी है जिंदगी
भौतिकवाद का यही परिणाम होता है
कितना भी मिल जाए, ना संतोष होता है
सपनों के पीछे दौड़कर थक गए हैं लोग
जिंदगी में सुकून का पल कहां मिलता है
जिन्होंने जरूरतें कम की, वे खुश हैं
अंधी दौड़ से जो बचे रहे, वे मजे में हैं
जितना मिला उसी में संतोष कर लिया
ईश्वर के भरोसे जो बैठे हैं, वे खुश हैं
पैसा, सत्ता, प्रतिष्ठा ही सब कुछ नहीं है
मन में शांति नहीं है तो कुछ भी नहीं है
ध्यान लगाकर अपने अंदर भी झांक ले
आनंद का अनंत सागर भी यहीं कहीं है
हरिशंकर गोयल “हरि”