हाँ, आज चहुँओर ओर जिधर भी दृष्टि जाती है सुबह से शाम तक पुस्तक-पुस्तिकाओं के बोझ से हांफता-कांपता बचपन दिख जाएगा,और कहीं इस बोझ के विषय में उनसे दो मीठे बोल साझा कर लीजिए तो फिर कहने ही क्या! इतना ही नहीं ऊपर से मां-पिता,अभिभावकों तथा शिक्षकों का पढ़ाई के लिए दबाव बनाना एवं अधिक से अधिक अंक प्राप्त करने के लिए तरह-तरह से प्रेरित करते हुए दबाव देना साथ ही अन्य कुशाग्र साथियों से निरन्तर तुलना करना सब कुछ सहज ही सिसक कर बाहर आ जाता है,पर क्या कोई उस ओर ध्यान देने को या सुधार करने को तैयार है? नहीं न, जो थोड़े-बहुत प्रयास किए भी जा रहे हैं – जैसे कि ‘डे बोर्डिंग विद्यालय’ या फिर बस्ता विहीन शिक्षालय – तो उनकी संख्या अत्यल्प है और सबकी जेब बर्दाश्त नहीं कर सकती।
जिसका परिणाम है कि बच्चों के कमजोर कंधों पर बढ़ता स्कूल के बस्ते का बोझ उन्हें न केवल गम्भीर बीमारियों की तरफ धकेल रहा है, साथ-साथ उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास पर भी असर डाल रहा है।
बच्चे खुद पर दोहरा दबाव महसूस कर रहे हैं, एक तरफ बस्ते का भार है तो दूसरी तरफ कोर्स का हौआ। रही सही कसर माता-पिता की उनसे जरूरत से ज्यादा की जाने वाली अपेक्षाएं पूरी कर देती हैं। कभी-कभी तो बच्चे इतना कंफ्यूज्ड हो जाते हैं कि वे आखिर करें तो करें क्या? किस-किस की उम्मीदों पर खरा उतरें। हालांकि मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय ने पिछले साल बच्चों की पीठ का बोझ कम करने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए थे, जिनमें-कक्षा एक और दो के लिए बस्ते का वजन डेढ़ किलो। तीसरी और पांचवी कक्षा के लिए दो से तीन किलो। छठवीं और सातवीं कक्षा के लिए चार किलो। आठवीं-नौंवी कक्षा के लिए साढ़े चार किलो और दसवीं के लिए पांच किलो। बावजूद इसके बच्चों की पीठ पर लदा बस्ते का बोझ अभी भी कम नहीं हुआ है। वो आज भी उतना ही भार अपने कंधों पर डाले स्कूल जा रहे हैं।बच्चे भी आखिर क्या करें? वे भी मजबूर हैं।
जरा सोचकर देखिए, इतना भार जब बच्चा इतनी छोटी उम्र में उठा रहा है आगे चलकर जब उस पर पढ़ाई का भी अतिरिक्त भार पड़ेगा तो वो कैसे अपनी पढ़ाई और स्वास्थ्य पर एकाग्र रह पाएगा। दिन-प्रतिदिन बढ़ती तरह-तरह की प्रतियोगिताओं की माँग उसे और भी मानसिक तनाव दे रही है।
बच्चों पर इस अत्याचार के लिए दोषी हम सब हैं। स्कूल बिना सोचे-समझे मोटे मुनाफे की खातिर कोर्स में किताबें बढ़ा देते हैं। माता-पिता की ओर से भी इसका ज्यादा विरोध दर्ज किया नहीं जाता। सरकारें इसके लिए कितना गंभीर रहती हैं बताने की आवश्यकता नहीं। निजी स्कूलों की अपेक्षा सरकारी स्कूलों में बस्ते का बोझ फिर भी बहुत कम है। लेकिन निजी स्कूलों को तो बच्चों को कुछ ही दिनों में पढ़ाकू बनाना होता है, सो किताबों का भार लाद दिया जाता है। गाहे-बगाहे अभिभावक संघ द्वारा इसका विरोध किया भी जाता है पर उनकी आवाज अनसुनी ही रह जाती है। ज्यादा दूर क्यों जाते हैं, निजी स्कूलों में फीस बढ़ोत्तरी को लेकर पिछले दिनों जो हंगामा हुआ, वह भी बेनतीजा निकला। स्कूल अपने में मस्त है, सरकार अपने में। ऐसा नहीं है कि बच्चों पर बस्ते का बोझ एक ही दिन में डाल दिया गया हो। पांचवे दशक तक ऐसा कुछ भी नहीं था। न मोटी-मोटी किताबें थीं, न भारी-भरकम बस्ते।ऐसा भी नहीं है कि तब के बच्चे पढ़ते ही नहीं थे। तब बच्चे पढ़ते भी थे और अच्छे नम्बरों से पास भी होते थे। लेकिन जब से हमारे बीच निजी स्कूलों ने अपना वर्चस्व कायम हुआ है, तब से बच्चों पर बस्ते का बोझ बढ़ता ही चला गया। हर मां-बाप की (अपवादों को छोड़ दें तो) यही तमन्ना होती है कि उसका बच्चा पढ़े निजी स्कूल में ही। अपना पेट काटकर वे उसे उसमें पढ़ाते भी हैं। जो सुविधा कभी खुद नहीं ली, अपने बच्चों को देते हैं। मगर बदले में उन्हें मिलता है, भारी बस्ते का बोझ और महंगी किताबें। सबकुछ जानते-समझते हुए भी हम अपने बच्चों को बस्ते की बोझ की दुनिया में धकेल रहे हैं, यह उचित नहीं। हमें कोई-न-कोई मापदंड तो तय करना ही होगा। माना कि पढ़ाई जरूरी है, सिलेबस और कोर्स भी जरूरी है पर वो ऐसा तो हो कि बच्चे खुद को हल्का महसूस करें। उसमें आनन्द ले सकें जो सर्वथा उनके और परिवार के लिए हितकारी ही होगा।वे किसी मानसिक व शारीरिक बीमारी का शिकार न बनें। जिस कल के लिए हम अनेक सपने देखते हैं, वो आज ही कहीं बोझ तले न दब जाए।
” किसको अपनी व्यथा सुनायें,
किसको अपने जख्म दिखायें,
कोई तो ऐसा हो जिससे मन की कह पायें,
नन्हीं आँखो औ अधरों पर खिलती मुस्कान जो ले आए।।
धन्यवाद!
लेखिका –
सुषमा श्रीवास्तव
मौलिक विचार