बेरोजगारी का ऐसा, छाया कहर 

जीवन में इसने भरा जहर ,
बेरोजगारी जिस पर पहले, लिखते थे निबंध। 
आज उसी के, हो गए हैं पाबंद !
अच्छी खासी करी पढ़ाई पर ,आज है कोई  नहीं कमाई !
न मिलती कोई लुगाई न, बनाता मुझे कोई जमाई!!
जुल्म ऐसा बेरोजगारीका,रोज ताने सुन रहे हैं
बाप ,भाई ,बहन सारे, बेगाने हो रहे है!
दो जून की रोटी के लिए ,बड़ी, जिल्लत सह रहे है,!
सारे अपने जो कहलाते , हमसे मुंह फेर रहे हैं!!
कब तक खाओगे, बाप की कमाई ,मुफ्त की रोटी खाते,
शर्म नही लगती ,रोज सुनना पड़ता है !
क्या करे साहब !बेरोजगारी का आलम ही ऐसा है,अपने तोअपने पड़ोसियों से भी मुंहछिपाना पड़ता है !!
मम्मी से ज्यादा पड़ोस वाली ,आंटी को मेंरी पड़ी है ,!
रोज नई नई हिदायतें देती ,आंखे उनकी  मुझ पर ही गड़ी हैं!!
 
सपनो के जो पुल बांधे थे, ताश के पत्तों  की तरह ढह रह रहे हैं!
अरमान थे जो आसमान को छूने के, वो अब आसूंओं में  बह रहे हैं !!
डिग्री सर्टिफिकेट लिए हम , मारे मारे फिर रहे हैं!!
ये डिग्रियां और काबिलियत भी, मुझे मुंह चिढ़ा रहे हैं!!
काश! अपना कोई बाप भाई  राजनीति में होता!   पैरवी कर मेरा भी जुगाड लगवा  देता !
तो आज हमे इन डिग्रियों  (बाबू लाल Msc) के साथ, मूंगफली  का ठेला न लगाना पड़ता !!
अब तो जिंदगी जो पहले, हंसी लगती थी, अब झंड हो   रही है
 जिंदगी से मन उठ गया है ,मर मर के  जी  रहे है  !!
इस बेरोजगारी में  हमे पता है, जिंदगी बोझ हो गई है !!
लाचारी और बेबसी के, वशीभूत हो गई है!!
पूनम श्रीवास्तव
महाराष्ट्र
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