गांव का मै  बूढ़ा बरगद ,
पहले रहता था गदगद !
बच्चे खेला करते थे ,
मेरे इर्द-गिर्द !
बुज़ुर्गों का लगता था डेरा ,
चलता था हंसी मज़ाक ठहाका!
चहल पहल रहती थी ,
खुशहाली  बरसती थी !
थके हारे लोग आते थे ,
 मेरी नीचे बैठकर ,
 शिद्दत की गर्मी से निजात पाते थे !
 मेरी छाया उनको सुकून देती थी ,
  मुझे भी इस बात से बड़ी शांति मिलती थी!
  धीरे-धीरे ऐसा हुआ ,
  गांव  के लोगों ने ,
  शहर की ओर रुख किया !
  एक-एक करके निकलते गए ,
  गांव खाली करते गए !
   मैं बरगद वहीं खड़ा रहा ,
   धीरे-धीरे सूखता गया !
   कोई मेरी छाया को ना बचा ,
    मैं  सब की बातें सुनने  को तरस गया !
    इस बुढ़ापे में यह हाल मेरा हुआ ,
     कोई ना मुझे पूछने वाला बचा !
    मै बूढ़ा बरगद   तन्हा अकेला रह गया !!
    
   हुमा अंसारी
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