ये बीता हुआ कल लौटकर कभी नहीं आता,
जो आ जाये लौटकर तो मैं लौटाना चाहूँ वो मासूम सा बचपन,वो अल्हड़पन,
फ़िक्र नहीं ज़माने की,
होती थी फ़िक्र तो बस पढ़ने पढ़ाने की,
वो गुड्डे गुड़ियों के खेल अनुठे
वो मेले में लगते झूले अलबेले,
काश कि होता कोई यंत्र
जो लौटा पाती मैं वो बीता हुआ कल,
पापा की डांट और डांट से बचाता माँ का आंचल,
सूने सी हो गयी है गलियां
जो खेलते थे हम खेल अनोखे,
काश लौट आता वो बीता हुआ कल
समय की कैसी ये चाल
बीत रहा पल पल हर क्षण
ये बचपन ये रौनक़े सदा बरकरार नहीं रहती
बीत रहे हर पल में कोई ना कोई भविष्य की कहानी है बुनती,
ढल जाती है जिंदगी की हर शाम,
फिर लौटकर वो शाम सुहानी नहीं आती
बीत रहे हर कल में बसी अनकही है कोई कहानी
बीते हुए समय में खोकर कभी लौटकर नहीं आती,
जिंदगी बीत जाती है पर वो रवानी फिर नहीं आती,
निकेता पाहुजा
रुद्रपुर उत्तराखंड