जिस आंगन में खेले कूदे बड़े हुए 
उस मिट्टी की महक भरी है सांसों में 
छोटा था पर सब सिमट ही जाते थे
 उन खुशियों की चमक भरी है आंखों में 
धीरे-धीरे सभी सयाने होने लगे 
सुख-दुख सबके साथ होने लगे 
डोली भी उठी मेरी  उस आंगन से 
छूट गए सब  रिश्ते नाते दामन से
 मैं भी तो अपनी मां की जाई थी 
फिर भी सबके लिए हुई पराई थी
 सब ने कहा बहुत पर मैंने ना जाना
 उस घर आंगन को बस अपना ही माना 
रीत यही सदियों से चलती आई है
 भारी मन से सबने यही निभाई है
 कड़ी धूप में वह तो छाया होता है
 आशीर्वादों भरा वह साया होता है
 पर बाबुल का  आंगन पराया होता है।
            प्रीति मनीष दुबे
              मण्डला(म.प्र)
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